Saturday, April 23, 2016

विचारों की सुन्दरतम् प्रस्तुति का नाम कविता +रमेशराज



               Rameshraj


विचारों की सुन्दरतम् प्रस्तुति का नाम कविता

+रमेशराज
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    कविता लोक या मानव के रागात्मक जीवन की एक रागात्मक प्रस्तुति है। कविता रमणीय शब्दावली से उद्भाषित होने वाला रमणीय अर्थ है। कविता आलंकारिक शैली में व्यक्त की गयी संगीत से युक्त एक ऐसी सौन्दर्यमय छटा है, जिससे सामाजिकों को आत्मतोष का अनुभव या अनुभूति होती है। कविता लोक-व्यवहार, लोकानुभव या लोकानुभूतियों की रसात्मक प्रस्तुति है।
    कविता के बारे में कहे गये उपरोक्त तथ्यों की सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन कविता में अन्तर्निहित रागात्मकता, रमणीयता, आलंकारिकता, रसात्मकता यदि सत्य और शिव तत्त्व के समन्वय से युक्त नहीं है तो सामाजिकों को जिस आंनद या तोष की अनुभूति होगी, वह असात्विक और मानवीय मूल्यवत्ता से विहीन होगी। इसलिये कविता का प्रश्न-सीधे-सीधे वैचारिक मूल्यों से जुड़ा हुआ है।
    वस्तुतः कविता कवि की वह वैचारिक सृष्टि है, जिसमें वह अपनी वैचारिक अवधारणाओं, मान्यताओं निर्णयों की प्रस्तुति अपनी रागात्मक दृष्टि के साथ करता है या ये कहा जा सकता है कि कवि की हर प्रकार की मान्यताओं, अवधारणाओं और निर्णयों के बीच एक रागात्मक धारा बहती है। कवि की वैचारिक सृष्टि की यही रागात्मक धारा आलम्बन विभावों के धर्म को सौन्दर्यमय और सत्योन्मुखी बनाती है। अतः कहा जा सकता है कि विचारों की सुन्दरतम् प्रस्तुति का नाम ही कविता है।
    कविता के संदर्भ में कोई भी विचार सुन्दर तभी हो सकता है, जबकि उसमें सत्य और शिव-तत्त्व का समन्वय हो। कविता के संदर्भ में सत्य और शिवतत्त्व ऐसे वैचारिक मूल्य हैं, जिनमें समूची मानवजाति के मंगल और रक्षा का विधान अन्तर्निहित है। यदि हमारे संवेग, हमारे भाव आदि समूची मानवजाति के मंगल का रसात्मकबोध सौन्दर्यानुभूति का ऐसा आलोक पैदा करेगा, जिसकी आंनदमय छटा क्रान्तिकारी भगतसिंह जैसे देश-भक्तों के मुख पर फाँसी के समय भी ओज और मुस्कान में देखी जा सकेगी। कविता में यदि आलम्बनों के धर्म लोकोन्मुखी और जन-मूल्यों से ओतप्रोत हों तो कविता सत्योन्मुखी चिन्तन की एक सात्विक आस्वाद्य सामग्री बन जाती है। इसलिये विचारों की सौन्दर्यात्मक मूल्यवत्ता इस बिन्दु पर अधिक केन्द्रित है कि विचार जिस रागात्मकबोध को जन्म दें, वह मानवीय मूल्यों को विखण्डित करने वाला न हो।
    रति को ही लीजिए- हमारे हिन्दी कवियों ने रति स्थायी भाव परकीया की स्थिति के बीच अपनी कुशल कारीगरी के साथ रस के चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया है लेकिन इसके पीछे जिस वैचारिक दृष्टि की महती भूमिका रही है, वह दृष्टि असामाजिक और भोग-विलास से युक्त रही। यदि इस दृष्टि का प्रगतिशील कवियों, आलोचकों ने विरोध किया है तो इसका कारण इसके वह सामाजिक प्रभाव हैं जो आस्वादकों को व्यक्तिवादी, भोग-विलासी बनाते हैं। जो आलोचक या काव्य-मर्मज्ञ कविता को सिर्फ आस्वादन की प्रक्रिया तक ही सीमित रखकर कविता को मात्र रस, आनंद या चमत्कार के परिप्रेक्ष में मूल्यांकित या संदर्भित करते हैं, वह  हीनग्रन्थियों के शिकार ऐसे आस्वादक हैं, जिन्हें कविता की सामाजिक उपादेयता से कोई लेना देना नहीं। वर्ना क्या कारण है कि काव्य से जो लोग प्रेमी-प्रेमिका की अवैध क्रियाओं को सार्थक और सात्विक ठहराते हैं, वही क्रियाएँ उन्हें वास्तविक जीवन में अवांछनीय, असामाजिक और रसाभास पैदा करने वाली महसूस होती हैं। यदि प्रेमी-प्रेमिका के कथित मिलन में कोई सार्थकता है तो एक बाप के लिए बेटी का, भाई के लिए बहिन का, पत्नी के लिये प्रेमी का यह प्रेम क्रोध का कारण क्यों बन जाता है? दिनकर की काव्य-कृति उर्वशीका पुरूरवा और उर्वशी का मिलन’ ‘औशीनरीमें डाह क्यों पैदा करता है। उसे दुखान्त अनुभूति से सिक्त क्यों करता है?
    सच तो यह है कि स्थायी भाव रति सिर्फ ऐसी वैचारिक प्रक्रिया के अन्तर्गत ही सार्थक और लोक-सापेक्ष हो सकता है, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम या प्रेमोन्माद हमारे सामाजिक जीवन पर किसी भी प्रकार का कुप्रभाव नहीं डालता।
    रति के संदर्भ में विचारों की सुन्दर प्रस्तुति तभी हो सकती है, जबकि पात्र वैध-अवैध का ध्यान रखकर रति के चरमोत्कर्ष तक पहुँचते हैं।  
    हमारे पूर्वजों ने बहिन-भाई, पिता-पुत्री, पति-पत्नी, माँ-बेटे के रूप में जो मानवीय मूल्य निर्धारित किये हैं, यदि इन मूल्यों की  सार्थकता को वर्जित कर कोई कवि रति की शृंगारपरक प्रस्तुति करता है तो उसकी कविता से सौन्दर्य की वास्तविक और सात्विक अनुभूति पूरे लोक या मानव को नहीं हो सकती।
    रति का चरमोत्कर्ष या उसका उद्दात्त रूप तो हमें इस प्रकार के संदर्भों में ही मिल सकता है जिनमें प्रेमी- प्रेमिका वैचारिक सूझ-बूझ के साथ जीवन की समस्याओं के हल खोजते हैं। उनके प्रेम की डोर भोगविलास, देह- उन्माद नहीं, सामाजिक-पारिवारिक दायित्व-बोध से जुड़ी होती है-
        ‘‘प्यारे जीवें जगहित करें गेह न चाहे आवें।
                या
          बुरे दिनों में तेरी पहचान लगी प्यारी
          फटी हुई धोती जैसी मुस्कान लगी प्यारी।
    स्थायी भाव क्रोध- स्थायी भाव क्रोध अपनी रस परिपाक की अवस्था रौद्रता के अन्तर्गत शत्रु का विनाश करने में अनुभावित होता है, लेकिन यह शत्रुता अकारण, स्वार्थवश, सनक पूरी करने के लिये या मात्र किसी को कुचलने के लिये व्यक्त होती है तो ऐसी स्थिति में क्रोध के रस परिपाक रौद्रता की अनुभूति पाठकों को अवश्य होगी, लेकिन यह रौद्रता ठीक उसी प्रकार की रहेगी जैसे उग्रवादी निर्दोष जनता का रोज कत्ले-आम कर रहे हैं। या जिस प्रकार अनेक सनकी बादशाह अपने देशों की सेनाओं को युद्ध की आग में झोंकते आ रहे हैं।
    जबकि भारतीय स्वतंत्राता संग्राम के क्रान्तिकारियों का गोरी सरकार के प्रति व्यक्त किया गया क्रोध एक ऐसी वैचारिक दृष्टि से युक्त था जिसमें देश या समाज के वास्तविक शत्रु के विनाश के पीछे समूचे भारतवर्ष के मंगल का विचार अन्तर्निहित था। इस प्रकार की वैचारिक-दृष्टि से उत्पन्न भाव जिस प्रकार के सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, उनकी सात्विकता पर संदेह नहीं किया जा सकता।
    भय की अवस्था- भय की अवस्था में व्यक्ति या समाज अपना धैर्य और साहस त्यागकर परिस्थिति का सामना करने से पूर्व ही भाग छूटता है। बात समझने की है कि युद्ध के दौरान यदि किसी देश की सेना दूसरे देश की सेना को शक्तिशाली समझ, मुकाबला करने से पूर्व, भाग छूटती है तो वह कायर या भगोड़ा तो कहलायेगी ही, साथ ही वह अपने देश की रक्षा करने में भी असफल रहेगी। ठीक इसी प्रकार यदि लोक या समाज गुंडों-अपराधियों  से भयग्रस्त होकर चुप्पी साध लेता है या उनकी गलत प्रवृत्तियों का विरोध नहीं करता है तो गुन्डे-अपराधी और ज्यादा अपराध-गुन्डागर्दी करने के लिये प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिये कविता के संदर्भ में भय की सार्थकता इस विचार-धारा के द्वारा ही दर्शायी जा सकती है कि अपने वतन पर आये संकट के समय अविवेकी क्रूर राजा के इशारे पर बढ़ने वाली सेना का सामना कुछ इस प्रकार किया जाये कि वह भयग्रस्त होकर भाग छूटे। गुन्डे-अपराधियों  का विरोध इस प्रकार किया जाये कि या तो वे सींखचों के भीतर जि़न्दगी बिताने पर मजबूर हो जाएँ या इतने डर जाएँ कि अपराध करना ही छोड़ दें।
    करुणा का सम्बन्ध- करुणा का सम्बन्ध किसी दीन-दुःखी की रक्षा करने से है। लेकिन यदि हमारे पास यह वैचारिक दृष्टि नहीं हो कि दीन-दुःखी वास्तविक रूप से दीन-दुःखी है अथवा नहीं तो करुणा के वास्तविक सौन्दर्य की अनुभूति सामाजिक को नहीं हो सकती। धर्म की आड़ लेकर आज ऐसे हजारों दीन-दुःखी बने घूमते मिल जाएँगे, जो आंसू ढरकाते हुए अपनी दुर्दशा का बखान करने लगेंगे, ऐसे लोगों पर दर्शायी गयी करुणा निरर्थक और सौन्दर्यविहीन  होगी। ठीक इसी प्रकार एक अपराधजगत का माना हुआ तस्कर-डकैत चोर यदि पुलिस की गोली या लाठियों का शिकार होकर चीखता-विलखता हुआ भागता है तो उसके प्रति मन में आये करुणा के भाव अतार्किक और सौन्दर्यविहीन होंगे।
    जबकि रेल या बस दुर्घटना में आपदाग्रस्त विलखते-सिसकते प्राणियों की दुर्दशा पर उत्पन्न विचारों से मन में उमड़ी करुणा का सौन्दर्य वास्तविक और सात्विक होगा। ठीक इसी प्रकार समूचे लोक या प्राणियों पर किसी भी प्रकार के संकट के समय, लोक या प्राणियों को संकट से बचाने या निकालने का विचार जिस तरह ऊर्जस्व करेगा, उसका करुणा का रूप उत्तरोत्तर सौन्दर्य से युक्त होता चला जायेगा।
    अस्तु, सम्प्रदायविशेष, जातिविशेष, परिवारविशेष, व्यक्तिविशेष को बचाने की वैचारिक प्रकिया द्वारा करुणा का रूप लोक मंगलकारी तत्त्वों के अभाव में सौन्दर्य की वास्तविक प्रतीति न करा सकेगा।
    साम्प्रदायिक दंगों के दौरान घायल हुए विभिन्न सम्प्रदायविशेष की ही दुर्दशा पर दुःख, शोक आदि से सिक्त होता है तथा दूसरे सम्प्रदाय के प्रति उसमें क्रोध या घृणा का संचार होता है तो यह घृणा-क्रोध और करुणा की स्थिति मानवीय मूल्यों की वैचारिकता से विहीन होने के कारण सौन्दर्य का सात्विक रूप न दिखा सकेगी। जबकि सम्प्रदायों के दायरों को तोड़कर दोनों ही सम्प्रदायों के निर्दोष व्यक्तियों की दुर्दशा को देखकर यदि किसी के मन में करुणा जाग्रत होती है तो इसकी सौन्दर्यात्मक मूल्यावत्ता सत्य और शिव तत्व के समन्वय से युक्त होगी।
    भक्ति के अंतर्गत आचार्य रामचन्द्र शुक्ल प्रेम और श्रद्धा  के योग का नाम भक्ति बतलाते हैं। हमारे अधिकांश कवियों ने भक्ति के स्वरूप का निरूपण कथित अलौकिक शक्तियों, देवी-देवताओं या ईश्वर के प्रति ही किया है। लेकिन यह प्रेम और श्रद्धा की स्थिति यदि अन्धविश्वास, पाखंड और कोरे व्यक्तिवाद पर अवलम्बित हो तो भक्ति की इस सौन्दर्यमयता को सात्विक कैसे कहा जा सकता है?
    शोषक और साम्राज्यवादी शक्तियों ने धर्म, अध्यात्म और अलौकिकत्व का सहारा लेकर ईश्वर जैसे मानसपुत्र का अवतरण किया, उससे धार्मिक उन्माद, शोषण और लोक-दुर्दशा का सीधा-सीधा, लेकिन रहस्यमय सम्बन्ध आज तक स्थापित है। कथित धर्म और ईश्वर का सहारा लेकर आज भी विश्व में ऐसे अनेक देशों के राजा, मंत्री या नेता हैं जो अपने कुशासन, अत्याचार और जनशोषण को बरकरार रखे हुऐ हैं । धर्म और ईश्वर के नाम पर विश्व में ऐसी हजारों संस्थाएँ हैं जिनके संस्थापक भक्ति के नाम पर जनता की खुली लूट कर रहे हैं। लौकिक जगत को निस्सार और मिथ्या बताकर इसी लौकिक जगत का खुला भोग कर रहे हैं। प्रश्न यह है कि इस प्रकार के शासकों या संस्थापकों या कथित ईश्वर के प्रति रखा गया प्रेम और श्रद्धा का योग एक विकृत भक्ति के अलावा क्या कुछ और हो सकता है?
    भक्ति के मूल में यदि श्रृद्धेय के प्रति यह विचार कर उसकी भक्ति नहीं की जाती कि क्या वास्तव में श्रृद्धेय ऐसा है कि उसके प्रति नतमस्तक हुआ जाये या उसकी सराहना की जाये? तब तक भक्ति की सौन्दर्यात्मकता वास्तविक और शाश्वत कैसे कही जा सकती है?
    विचार रस और सौन्दर्य के इस प्रकरण में हमने अभी तक हमने विचारों के सुन्दर रूप की ही चर्चा की है। विचारों का यह सुन्दर रूप हमें साहित्य की लगभग सभी विधाओं जैसे कहानी, उपन्यास, नाटक, लघुकथा, संस्मरण आदि में मिल जाता है,किंतु कविता के संदर्भ में विचार अपनी सुंदरतम प्रस्तुति के साथ उपस्थित होते हैं। यह सत्य और शिव-तत्त्व के समन्वय के द्वारा संभव होता है। कविता में सत्य और शिव-तत्त्व का समन्वय चूकि परिस्थितिसापेक्ष अर्थात् किसी कालविशेष के लोकजीवन के घटना-दुर्घटना क्रमों से जुड़ा होता है, अतः कविता की सौन्दर्यात्माकता भी इन्ही परिस्थितीयों के सापेक्ष देखी जा सकती है। मसलन् परिस्थितियाँ यदि लोक को संकटग्रस्त, संघर्षपूर्ण, यातनामय, शोषणमय बनाये हुए हैं तो ऐसे में कविता के भीतर सत्य और शिवतत्त्व का समन्वय लोकरक्षा के अन्तर्गत ही देखा जा सकता है। कवि ने कविता में वर्णित आलम्बनों द्वारा किस प्रकार, किस चिन्तन प्रकिया के तहत लोकरक्षा के प्रयास किये हैं, यह प्रयास ही आस्वादकों को सौन्दर्य की अनुभूति कराते है। जैसे कवि इन परिस्थितियों को मात्र शोकाकुल बनाकर पाठकों में करुणा को अपने चरमोत्कर्ष तक ले जा सकता है, या वह संघर्षपूर्ण यातनामय, भयावह, त्रासद और शोषणयुक्त परिस्थितियों के कारकों अर्थात शोषक और आताताई वर्ग के प्रति कविता के माध्यम से आस्वादकों को ऐसे वैचारिक बिन्दुओं पर लाकर खड़ा कर सकता है, जहाँ से उनके मन में आक्रोश, असंतोष, विद्रोह, विरोध या क्रोध का लावा भभक उठे। कवि के यह दोनों कर्म ही मानवमंगलकारी और सौन्दर्य की सात्विकता से युक्त होंगे। लेकिन यदि कवि इन परिस्थितियों को दरकिनार कर कविता में एक कल्पना-लोक को खड़ा कर सकता है। ऐसा कल्पनालोक पलभर के लिये सामाजिकों को आनन्द प्रदान कर दे, लेकिन यह आनंद             [ सत्य और शिवतत्त्व समन्वय से विहीन होने के कारण ] लोक को ऐसी कोई दिशा या दृष्टि नहीं प्रदान कर सकेगा, जिससे लोक अपने ऊपर आये संकटों का सामना कर सके या उनसे उबरने का प्रयास कर सके। युद्धरत सेनाओं के बीच भ्रातत्व की बातें जिस प्रकार बेमानी हो जाती हैं, ठीक इसी प्रकार एक त्रासद परिवेश के बीच भूख से विलख कर बच्चे दम तोड़ते हों, चारों तरफ कुहराम मचा हो, इन्सानियत लाश बनती जा रही हो, हर रात हर सुबह के चेहरे पर कोई न कोई भयंकर हादसा अंकित कर जाती हो, ऐसे में कविता की सार्थकता इस बात में अन्तर्निहित है कि वह इस प्रकार की परिस्थितियों के शिकार मानव या लोक को ऐसी वैचारिक दृष्टि प्रदान करे जो करुणा से गति लेती हुई ऐसी रसात्मकता की ओर पहुँचे, जिसके भाव भले ही उग्र और प्रचण्ड हों, लेकिन उनके द्वारा इन परिस्थितियों से मुक्ति के मार्ग खुल सकें। यह विचारों की ऐसी सुन्दर प्रस्तुति होगी, जिसमें सौन्दर्य का उत्तरोत्तर विकास परिलक्षित होने लगेगा।
    यथार्थ की पकड़ के साथ सत्य की ओर जब कविता गतिशील होती है तो वह विचारों का सुन्दर रूप प्रस्तुत करती है। लेकिन विचारों की यह सुन्दर प्रस्तुति सुन्दरतम तभी बन सकती है जबकि इसे छन्द लय संगीत, बिम्ब प्रतीक, उपमान और ध्वनि संकेतों के माध्यम से और ऊर्जस्व बनाया जाये।
    कविता के संदर्भ में साध्य तो वह विचाधराएँ ही होती हैं, जो लोक या समाज के लिये एक निश्चित कर्मक्षेत्र को निर्धरित करती हैं। कविता के कर्मक्षेत्र में वेग लाने के लिये छन्द, अलंकार, प्रतीक, मिथक, उपमानों या ध्वन्यात्मकता का उपयोग मात्र एक साधन  के रूप में किया जाता है। इस तथ्य को हम इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं कि विचारों की सुन्दर से सुन्दरतम् प्रस्तुति इस बात पर निर्भर है कि उस विचार को अधिक ऊर्जस्व बनाने के लिये उसमें सत्य शिव-तत्त्व के साथ-साथ संगीत, लय, छंद, प्रतीक, उपमान, ध्वन्यात्मकता आदि का भी समन्वय हो।
    यदि कोई यह कहता है कि वर्तमान व्यवस्था में आदमी के प्रति हिंसक रूप अपनाये हुए है।’’ तो शायद इसका किसी पर विशेष प्रभाव न पड़े। लेकिन जब हम इसी बात को एक तेवरी की निम्न पंक्तियों के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त करते है कि-
        ‘वक्त के हाथों व्यवस्था की छुरी
         और हम ऐसे खड़े, ज्यों मैमने।
            [ दर्शन बेजार, देश खण्डित हो न जाए, पृ. 38 ]  
तो वर्तमान व्यवस्था का हिंसक रूप अपने सुन्दरतम् रूप में इस कारण कविता बन जाता है-
    क्योंकि इसे प्रस्तुत करने के लिये इससे छन्द, लय, संगीत का अभिनव प्रयोग हुआ है।
    क्योंकि इसको प्रस्तुत करने के लिये कवि ने जिसे बिम्ब योजना का सहारा लिया है, उसकी वास्तविक जानकारी पाठकों को व्यवस्था रूपी वधिक के हाथ में छुरी और उस छुरी के नीचे थर-थर काँपते मानव रूपी मैमने के रूप में होती है।
    क्योंकि छन्द, लय, संगीत, बिम्ब आदि के समन्वय से कवि ने वर्तमान यथार्थ पर सूक्ष्म पकड़ रखते हुए पाठकों के उन चिन्तन-तन्तुओं को झकझोरने का प्रयास किया है, जो उसे व्यवस्था रूपी वधिक की छुरी के नीचे थर-थर काँपते मानव के असहाय और भयावह हालात का यह पता दे सकें कि वर्तमान व्यवस्था बधिक की तरह कितनी निर्मम होकर मानव रूपी मैमने की गर्दन पर छुरी चला रही है। पाठकों के मन में आया यह दशा मानव के प्रति करूणा की वह मार्मिक अवस्था होगी, जिसका सौन्दर्य सात्विकता लिये हुए होगा।
    छन्द, लय, बिम्ब के माध्यम से उत्पन्न हुई करुणा की यह सात्विक सौन्दर्यानुभूति अपनी गतिशील अवस्था में जब सौन्दर्य के चरमोत्कर्ष तक पहुँचेगी तो पाठकों को इस नये विचार के साथ कि ‘‘वर्तमान व्यवस्था कितनी हिंसक और घिनौनी हो गयी है, इसे बदला जाना आवश्यक है’’ नयी दशा में ऊर्जस्व करेगी, जिसका रस परिपाक आक्रोश के माध्यम से विरोध तक पहुँचेगा। करुणा, आक्रोश और विरोध से सिक्त उक्त विचार ही इन पंक्तियों का सत्य ओर शिव-तत्व से समन्वित वह रूप है, जो लोक या मानव के प्रति गहन रागात्मकता का आभास ही नहीं देता, बल्कि लोक या मानव पर घिनौनी व्यवस्था के संकट के प्रति विभिन्न तरीकों से सचेत भी करता है। 
    इस प्रकार हम कह सकते है कि इन पंक्तियों में छन्द, लय, संगीत, बिम्ब, प्रतीक आदि के माध्यम से कवि ने जो विचारों की सुन्दरतम् प्रस्तुति की है, उसमें कविता के वे सारे गुण मौजूद हैं, जिनसे कविता, कविता कही जाती है।
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-15/109,ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630 

डॉ. नामवर सिंह की दृष्टि में कौन-सी कविताएँ गम्भीर और ओजस हैं?? -रमेशराज



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डॉ. नामवर सिंह की दृष्टि में कौन-सी कविताएँ गम्भीर और ओजस हैं??

-रमेशराज
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    कविता के क्षेत्र में यह प्रश्न कि कविता क्या है? कोई नया प्रश्न नहीं हैं। यह प्रश्न अपने-अपने सलीके-से समीक्षकों तथा आलोचकों ने उठाया है और अपने-अपने तरीके से इसका उत्तर देने का जीतोड़ प्रयास भी किया है। लेकिन कविता के इस प्रश्न के मूल में जाने के बजाय आलोचकों-समीक्षकों ने जिस तरह से इसे सुलझाने की कोशिश की है, उससे कविता क्या हैके प्रति अपनी-अपनी मान्यताएँ, अपने-अपने दावे लेकर मैदान में कूदने वाले चिंतकों ने अपनी सारी की सारी मानसिक ऊर्जा कविता को तय करने के बजाय किसी कवि विशेष की कविता को तय करने में खपा डाली है। परिणाम यह है कि कविता क्या हैजैसे ज्वलंत प्रश्न का समाधान आज भी उस गुफा की तरह व्यक्त हो रहा है, जिसमें रोशनी का एहसास तो बेहद कम होता है, पर अँधेरे की खौपफनाक सत्ता पूरी तरह जीवंत हो उठती है। अँधेरे के इसी खौफनाक तिलिस्म को तोड़ने के लिये सन् 1968 में प्रख्यात प्रगतिशील आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने अपने तरीके से फिर यह प्रश्न उठाया कि-कविता क्या है? उन्होंने अपनी पुस्तक कविता के नये प्रतिमानमें डॉ. जगदीश गुप्त का कविता के विषय में हवाला देते हुए कहा कि-‘‘डॉ. जगदीश गुप्त का यह कथन सर्वथा समयोचित है कि किसी काव्य-कृति का कविता होने के साथ ही नयी होना अभीष्ट है। वह नयी हो और कविता न हो, यह स्थिति साहित्य में कभी स्वीकार्य नहीं। फिर नयी कविता का विरोध आज नयेपन के आग्रह के कारण उतना नहीं हो रहा, जितना इस कारण कि जो वाह्यतः और साधाणतः कविता नहीं लगता, उसे उसके अन्तर्गत कविता कहा जाता है। अतएव नया क्या है? इस प्रश्न के साथ ही यह प्रश्न भी जीवित प्रश्न है कि कविता क्या है?’’
    उन्होंने डॉ. गुप्त के प्रश्न को समयोचित और सार्थक इसलिये माना क्योंकि डॉ. सिंह का कहना है कि-‘‘ कविता में अब नयी कविता के आगे नयी प्रवृत्तियों का उदय हो चला है। डॉ. गुप्त यह मानते हैं कि जो कथन सृजनात्मकता तथा संवेदनीयता से रहित हो उसे किसी भी स्तर पर कविता नहीं कहा जा सकता। इस विवेचन से स्पष्ट है कि सृजनात्मकता नवीनता का पर्याय है और संवेदनीयता कविता का। किन्तु इस विवेचन के बाद जब डॉ. जगदीश गुप्त कविता की परिभाषा प्रस्तुत करते हैं तो जाने कैसे सृजनात्मकता का तत्त्व गायब हो जाता है।’’       
उक्त सारे प्रकरण में ध्यान देने योग्य बात यह है कि डॉ. जगदीश गुप्त यह मानते हों या मानते हों कि सृजनात्मकता नवीनता का पर्याय है और संवेदनीयता कविता का। लेकिन डॉ. नामवर सिंह तो बहरहाल यह मानकर चलते ही हैं कि सृजनात्मकता नवीनता होती है और संवेदनीयता कविता।
अब डॉ. नामवर सिंह जैसे महान और प्रगतिशील आलोचक से कौन पूछे कि जब संवेदनीयता का मतलब कविता होता है तो बेचारे जगदीश गुप्त की सृजनात्मकता के पीछे हाथ धोकर क्यों पडे हैं? केवल नवीनता से क्यों इतना व्यामोह? बात यदि कविता के संदर्भ में चल रहीं है तो संवेदनीयता की पूंछ, केश कुछ भी पकड़ लेते, कविता अपने आप पकड़ में आ जाती। लेकिन नामवर सिंह की खूबी यह है कि उन्हें पकड़कर कुछ भी नहीं चलना है, बस हवा में हाथ-पैर पटकते रहना है, सो वह डॉ. गुप्त पर सृजनात्मकता की भूलका आरोप लगाते हुए यह बात बड़े ही निर्भीक होकर गर्व के साथ कह जाते है कि प्राचीन चिन्तकों के साथ अपनी बात को जोड़ने की धृष्टतासे अभिभूत डॉ. जगदीश गुप्त अपनी काव्य-परिभाषा में वह तत्त्व भूल गये जिसे नयी कविता ने हिंदी काव्य-परम्परा में जोड़ा है। इसीलिये अनुभूति तो उन्हें याद रह गयी, लेकिन सृजनात्मता को भूल गये।’’
    यही नहीं डॉ. नामवर सिंह ने डॉ. गुप्त के इस तथ्य को भी स्पष्ट करने कि कोशिश नहीं की कि-‘‘कविता में नवीनता की उत्पत्ति वस्तुतः सच्ची कविता लिखने की आकांक्षा से ही होती है।’’
    जब डॉ. नामवर सिंह को संवेदनीयताऔर सच्ची कवितासे कुछ लेना देना नहीं है । अतः वह अपने कथनों के माध्यम से ऐसे अंतर्विरोध और उलझाव पैदा करते चले जाते हैं कि अन्त तक यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि आखिर डॉ. सिंह क्या कहना चाह रहे हैं या क्या स्पष्ट करना चाह रहे हैं।
    बानगी के तौर पर यहाँ उन्हीं की पुस्तक से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
    डॉ. नामवर सिंह अपने निबन्ध काव्य-बिम्ब और सपाट बयानीके अन्तर्गत काव्य में नैतिकता के समावेश को जायज ठहराते हुए यह मानते हैं कि-‘‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सीधे  भावोद्गार को काव्य शिष्टताके विरुद्ध मानते थे। स्पष्टतः यह भद्दापन काव्य-दोष ही नहीं बल्कि नैतिक दोषहै। विचार क्रम में वस्तुयोजना को स्पष्ट करते हुए शुक्लजी ने बतलाया कि आवश्यकता से अधिक अप्रस्तुत विधान का सहारा लेना कविता के लिये हानिकारक है। उन्ही के शब्दों में-‘‘यों ही खिलवाड़ के लिये बार-बार प्रसंग प्राप्त वस्तुओं से श्रोता या पाठक का ध्यान हटाकर दूसरी वस्तुओं की ओर ले जाना, जो प्रसंगानुकूल भाव उद्दीप्त करने में भी सहायक नहीं, काव्य के गाम्भीर्य और गौरव को नष्ट करना है, उसकी मर्यादा बिगाड़ना है।’’ यहाँ मूल्य-निर्णय में मर्यादाशब्द नैतिक रंग की सूचना देता है। इस प्रकार के नैतिक निर्णयों के लिये कुछ लोगों ने शुक्लजी पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने काव्येतर मूल्यों का प्रयोग किया’, किन्तु संदर्भ से स्पष्ट है कि वे तथाकथित काव्येतर मूल्य, काव्य-मूल्यों के तार्किक परिणाम थे।’’
    इस प्रकार हम पाते हैं कि उक्त कथन के माध्यम से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य-निर्णयों पर डॉ. सिंह अपनी सहमति की मुहर लगाते हैं तथा एक अन्य स्थान पर लिखते हैं-‘‘जागरूक समीक्षक शब्द के इदिगिर्द बनने वाले समस्त अर्थवृत्तों तक फैल जाने का विश्वासी है। वह संदर्भ के अनुसार शब्द में निहित अर्थापत्तियों को पकड़कर काव्य-भाषा के आधार पर ही काव्य का पूर्ण मूल्यांकन कर सकता है, जिसमें उसका नैतिक मूल्यांकन भी निहित है।’’
    कविता में इसी नैतिकताके समावेश के आधार पर उन्होंने यह तथ्य सामने रखे कि-‘‘नयी प्रयोगशील कविता के साथ काव्य-भाषा के निर्माण की दिशा में जो यह मान्यता आयी कि कविता की भाषा का आधार बोलचाल की भाषा होनी चाहिए, वह केवल भाषागत स्वाभाविकता अथवा स्थूल प्रकृतिवादी [नेचुरलिस्ट] प्रवृत्ति का ही सूचक नहीं, बल्कि उसके साथ कवि का एक गम्भीर नैतिक साहस जुड़ा हुआ है, जिसके अनुसार अपने आसपास की दुनिया में हिस्सा लेते हुए ही कविता को इस दुनिया के अन्दर एक दूसरी दुनिया की रचना करना आवश्यक हो जाता है।’’
    अपनी बात की पुष्टि में उन्होंने साही का यह कथन भी उधृत  किया कि-‘‘गहरे अर्थ में आज के जीवन के स्पन्दन की तलाश भाषा के भीतर से निचुडते हुए रक्तकी तलाश है, क्योंकि आज के कवि का सत्य यथार्थ के बाहर किसी लोकोत्तर अदृश्य में नहीं, यथार्थ के भीतर अन्तर्भुक्त संचार की तरह अनुभव होता है।’’
    डॉ. नामवर सिंह के उक्त तथ्यों के आधार पर उन्हीं के निष्कर्षों को उनकी सहमति के रूप में हम इस प्रकार चुन-चुन कर रख सकते हैं-
1. सीधे भावोद्गार काव्य-शिष्टता के विरुद्ध होते हैं।
2. अधिक अप्रस्तुत विधानों का सहारा लेना कविता के लिये हानिकारक होता है।
3. कविता में मार्यादाओं का पालन करना नैतिक रंग का सूचक है और नैतिक निर्णय भले ही कुछ लोगों के लिये काव्येत्तर मूल्य रहे हों, लेकिन इन्हें कविता के संदर्भ में तार्किक रूप से स्वीकारा जाना चाहिए।
4. जागरूक समीक्षक को संदर्भ के अनुसार शब्द में निहित अर्थापत्तियों पकड़ कर काव्य-भाषा के आधार पर काव्य का पूर्ण मूल्यांकन करना चाहिए, जिसमें उसका नैतिक मूल्यांकन भी निहित है।
5. कविता में बोलचाल की भाषा केवल भाषागत स्वाभविकता ही या प्रकृतिवादी प्रवृत्ति की ही सूचक नहीं होती, बल्कि इसमें कवि का एक गम्भीर नैतिक साहस जुड़ा हुआ होता है।
6. अपने आसपास की दुनिया में हिस्सा लेते हुए कवि को कविता के भीतर एक नयी और जरूरी दुनिया का निर्माण करना चाहिए।
7. अगर हमें जीवन के स्पन्दन को तलाशना है तो आवश्यक है कि भाषा के भीतर से निचुड़ते हुए रक्तको तलाशना होगा क्योंकि आज के कवि का सत्य काव्य के बाहर किसी लोकोत्तर अदृश्य में नहीं।
    डॉ. नामवर सिंह के उक्त तथ्य निस्संदेह कविता के कवितापन को तय करने में बड़े ही सारगर्भित-सार्थक और तर्कसंगत हैं लेकिन अपने इन्ही तथ्यों के माध्यम से वे कविता के नाम पर कुछ कवियों को स्थापित करने की गरज से एक ऐसा खूबसूरत घपला या घोटाला कर जाते हैं जिसे सुदामा पांडेय धूमिलके शब्दों में यूँ कहा जा सकता है कि-
हर ईमानदारी का
एक चोर दरवाजा है
जो संडास की बगल में खुलता है।’’
    डॉ. नामवर सिंह धूमिल की इन पंक्तियों में शब्दों और तुकों से खेलने की अपेक्षा सूक्तियों से खेलने की वृत्ति की अधिकताबतलाते हैं। इनके अर्थ गाम्भीर्य पर कोई चर्चा नहीं करते। उन्हें इन पंक्तियों के माध्यम से भाषा या आदमी के भीतर से रक्त निचोड़ने  वालेरक्तभक्षी चरित्र नजर नहीं आते जिनके मुख पर सौम्यता, सदाचार, मंगलाचार के मंत्र होते है लेकिन मन के भीतर दुराचारों, धूर्तता और ठगी की सडांध भरी होती है। यह अँधेरे में परम अभिव्यक्ति की कैसी खोज है जो अँधेरे की सत्ता को तहस-नहस करने के बजाय अँधेरे को ही और ज्यादा जीवंत और पुष्ट करती है।
    अँधेरे के बीच रोशनी के सूत्रों को खत्म करने की यह साजिश कितनी खूबसूरती के साथ की जाती है, इसका अन्दाजा डॉ. नामवर सिंह की काव्य के मूल्यों के प्रति की जाने वाले घपलेबाजी से सहजतापूर्वक लगाया जा सकता है। वह सुदामा पांडेय धूमिल कविताओं के चुनौतीपूर्ण वर्गसंघर्षीय रचनात्मक आलोक [ जो अंधेरे  की नाक पर बिना किसी लागलपेट के रोशनी का व्यजनात्मक घूँसा जड़ता है ] को सूक्तियों से खेलने की वृत्ति कहकर खारिज कर देते हैं । यही नहीं वह निराला की कुकुरमुत्ताजैसी अर्थ गम्भीर और सत्योन्मुखी चेतना से युक्त कविता को मात्र कुतूहल, हास्य-व्यंग्य के प्रति एक विशेष प्रकार का पूर्वग्रहघोषित कर डालते हैं।
सवाल पैदा होता है कि डॉ. नामवर सिंह की दृष्टि में कौन-सी कविताएँ गम्भीर और ओजस हैं??
    अपनी पुस्तक कविता के नये प्रतिमानके जिस पृष्ठ पर धूमिल की कविता पर वे सूक्तियों से खिलवाड़ का आरोपलगाते हैं , ठीक उसके ऊपर वे श्रीकांत वर्मा के सधे हुए हाथ से सृजित कविताको वे कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक गहरे अर्थ की व्यंजना से युक्त कविताघोषित करते हैं। कविता में कितने गहरे अर्थ की व्यंजना है और वो भी कम से कम शब्दों में’, कविता प्रस्तुत है-
        मैं हरेक नदी के साथ
        सो रहा हूँ            
        मैं हरेक पहाड़
        ढो रहा हूँ
        मैं सुखी
        हो रहा हूँ
        मैं दुखी
            हो रहा हूँ
        मैं सुखी-दुखी होकर
            दुखी-सुखी
        हो रहा हूँ
        मैं न जाने किसी कन्दरा में
        जाकर चिल्लाता हूँ
         हो रहा हूँ।
मैं हो रहा हूँ।
    डॉ. नामवर सिंह इस कविता की तारीफ करते हुए कहते हैं-‘‘शुरू का शाब्दिक खिलवाड़ अन्त तक जाते-जाते मैं हो रहा हूँकी जिस अर्थ गम्भीरता में परिणत होता है, वह आज की कविता की एक उपलब्धि है। अरथ अमित आखर अति थोरेके ऐसे उदाहरण आज कम ही मिलते हैं।’’
    अन्तर्विरोध देखिए कि उक्त कविता को आज की कविता की उपलब्धि बताने के बावजूद डॉ. नामवर सिंह लिखते है कि- “इस कविता में शुरूआत ही शब्दों के साथ खिलवाड़ से होती है।“
 इसका सीधा अर्थ क्या यह नहीं कि कविता में शब्दों का खिलवाड़ मौजूद है। सही बात तो यही है कि कविता की जिस कमी को डॉ. सिंह जिस बात को दबे स्वर में स्वीकारते हैं, वह बात इस कथित कविता को आदि से लेकर अन्त तक कविता की एक कमजोरीके रूप में सर्वत्र व्याप्त है। विसंगति और विडम्बनानामक निबंध के अन्तर्गत प्रस्तुत इस कविता में विसंगति या विडम्बना भले न हो, लेकिन शब्दों से लेकर अर्थ तक असंगति ही अंसगति की भरमार है। अबाध गति से बहती हुई नदी के साथ सोने का उपक्रम अवास्तविक ही नहीं नदी की गति या उसके संघर्ष में विराम और बाधा का द्योतक है। अबाध गति में नदी को या अन्य किसी को विश्राम या निद्रा कहाँ? अबाध गतिधा नदी के साथ कथित रूप से सोने वाला कवि कैसे और क्यों पहाड़ों को ढो रहा है? पहाड़ ढोने की यह क्रिया किसके लिये किया गया संघर्ष है? जबकि वह नींद में है, सो रहा है। यह क्या हो रहा है? कविता में कहीं स्पष्ट नहीं। सुखी की तुक दुखी से मिला देने भर से क्या कोई कथित कविता, कविता होने का दम्भ भर सकती है? ‘‘अरथ अमित आखर अति थोरे” के रूप में कविता का यह कैसा उदाहण है कि एक निरर्थक बात को पंन्द्रह पंक्तियों में नयी कविता के नाम पर खींच-खींच कर सिर्फ पेज भरने के लिये फैलाया गया है। मैंसे शुरू होकर हो रहा हूँकी प्रतिध्वनि यह कविता किस प्रकार के गहरे अर्थ की व्यंजना है? क्या यह कथित कविता छायावादी, रोमांसवादी, व्यक्तिवादी संस्कारों से मुक्त है? यह कविता में आज की कविता की उपलब्धि के रूप में कैसे गाम्भीर्य को ओढ़े हुए है, डॉ. नामवर सिंह इस तथ्य को थोड़ा-सा भी स्पष्ट करते तो बात शायद कुछ समझ में आती, लेकिन डॉ. सिंह की विशेषता ही यह है कि वे जिन तत्थों को कविता के पक्ष में चुन-चुन कर खड़ा करते हैं, वही तथ्य कविता की परख के लिये एक दम बौने और पंगु हो जाते हैं। ऐसा किसलिये होता है- क्योंकि यहाँ डॉ. सिंह की रुचि कविता को स्पष्ट करने में कम, श्री श्रीकांत वर्मा कविता को सारगर्भित और सार्थक घोषित सिद्ध करने में अधिक है।
    ‘कविता के नये प्रतिमानपुस्तक में पृष्ठ 102 पर रघुवीर सहाय की नया शब्दशीर्षक कविता के बारे में जब डॉ. नामवर सिंह यह स्वीकारते हैं कि-‘‘ इन पंक्तियों में न तो कोई नया शब्द है, क्योंकि कवि के पास आज न तो शब्दही रहा है और न भाषा’’ तब सवाल यह है कि डॉ. नामवर सिंह को यह एहसास कैसे होने लगता है कि इस कविता का संकेत किसी नये अनुभव की ओर है। यदि इस कथित कविता में कोई नया अनुभव-संकेत है तो उसको डॉ. नामवर सिंह स्पष्ट करना था।
एक अन्य कविता ‘‘फिल्म के बाद चीखकी भाषा सम्बन्धी  खोज की छटपटाहट का एक पहलू और है जिसमें भाषा की खोज आगकी खोज में बदल गयी है। स्वयं कवि के अनुसार न सही यह कवितायह भले ही उसके हाथ की छटपटाहट सहीलेकिन इसके माध्यम से वे आग खोजते हैं। यहाँ गौरतलब और आश्चर्यजनक बात यह है कि आग खोजने की यह क्रिया [जिसमें मन नहीं, हाथ छटपटाते हैं ] घोर उजाले में सम्पन्न होती है। क्या घोर उजाले सें कोई घोर अँधेरा है? इस घोर उजाले का रूप या विद्रूप इस कथित कविता में जब अस्पष्ट है तो आगखोजने की यह सारी की सारी प्रक्रिया काव्य-भाषा तथा सृजनशीलता को निःशब्द, निष्प्राण करेगी ही। और कवि के भीतर छुपा हुआ चोर इस तथ्य को स्वीकारेगा ही कि न सही यह कविता। इसलिए इस कविता के लिये नये प्रतिमान की खोज का अर्थ? सब कुछ व्यर्थ।
तब अर्थपूर्ण क्या है, जिसके लिये डॉ. सिंह इतनी मगजमारी कर रहे हैं। काव्य बिम्ब और सपाटबयानीनिबन्ध के अंतर्गत डॉ. नामवर सिंह अपनी पोल यह कहकर स्वयं खोल देते हैं कि-‘‘ निष्कर्ष यह है कि कविता बिम्ब का पर्याय नहीं है, सामान्यतः जिसे बिम्बकहा जाता है उसके बिना भी कविताएँ लिखी गयी हैं और वे बिम्बधर्मी कविताओं से किसी भी तरह कम अच्छी नहीं कही जा सकतीं। कविता में बिम्ब रचना सदैव वास्तविकता को मूर्त ही नहीं करती [ वैसे, मूर्त और अमूर्त शब्दों का प्रयोग प्रर्याप्त अनिश्चितता अर्थों में होता है ] कविता में बिम्ब वास्तविकता के साक्षात्कार का सूचक नहीं होता। प्रायः वह वास्तविकता से बचने का एक ढँग भी रहा है। काव्य-भाषा के लिये भी प्रायः बिम्ब-योजना हानिकारक सिद्ध हुई है। बिम्बों के कारण कविता बोलचाल की भाषा से अक्सर दूर हटी है। बोलचाल की सहज लय खण्डित हुई है। वाक्य विन्यास की शक्ति को धक्का लगा है, भाषा के अन्तर्गत क्रियाएँ उपेक्षित हुई हैं। विशेषणों का अनावश्यक भार बढ़ा है और काव्य-कथ्य की ताकत कम हुई है।’’
    काव्य-बिम्ब के बारे में यह तर्क प्रस्तुत करने के बावजूद जब डॉ. नामवर सिंह यह कहते हैं कि-‘‘काव्यबिम्ब पर चर्चा का आरम्भ यदि एक कविता के ठोस उदाहरण से न हो तो फिर वह चर्चा क्या?’’
बात अटपटी-सी लगती है। फिर भी चूकि चर्चा डॉ. नामवर सिंह कर रहे हैं और वह भी एक कविता के ठोस उदाहरण से, इसलिये उनकी बात पर पूरी तरह ध्यान देते हुए कविता का वह ठोस उदाहण प्रस्तुत है-
            इस अनागत को करें क्या ?
            जो कि अक्सर बिना सोचे, बिना जाने
            सड़क पर चलते अचानक दीख जाता है
    डॉ. सिंह, केदारनाथ सिंह की इस कविता के बारे में लिखते हैं कि-‘‘अनागत अमूर्त है किन्तु कवि-दृष्टि उसकी आहट को अपने आस-पास के वातावरण में देख लेती है और वातावरण के उन मूर्त संदर्भों के द्वारा अमूर्त अनागत को मूर्त करने का प्रयास करती हैं। जीवंत संदर्भों के कारण अनागत एक निराकार भविष्य के स्थान पर जीवित सत्ता मालूम होता है। एक प्रेत-छाया के समान वह कभी किताबों में घूमता प्रतीत होता है तो कभी रात की वीरान गलियों-पार गाता हुआ। इसी तरह खिडकियों के बन्द शीशों को टूटते, किबाड़ों पर लिखे नामों के मिटते और बिस्तरों पर पड़ी छाप देखकर उसके आने का एहसास होता है। उसका आना इतना अप्रत्याशित और रहस्यमय है कि हर नवान्तुक उसी की तरह लगता है।’’
    तीन पंक्तियों का उदाहण के रूप में दिया गया उपरोक्त कवितांश क्या इन सब खूबियों को व्यक्त करने में समर्थ है, जिनका धाराप्रवाह जिक्र डाक्टर नामवर सिंह यहाँ कर रहे हैं। अनागत कविता में प्रेत छाया सा घूमना, खिड़कियों बन्द शीशों का टूटना, किबाड़ों पर लिखे नामों का मिटना आदि-अदि बिम्ब इन पक्तियों में मूर्त या अमूर्त रूप में कहाँ विद्यमान हैं। क्या यह कविता की बचकानी और कोरी काल्पनिक व्याख्या नहीं, जिसे कवि ने नहीं, स्वंय आलोचक ने गढ़ा है। और गढ़ने का भी तरीका देखिये कि कवि-दृष्टि आहटों को सुनती नहीं, देखती है
अगर इन पंक्तियों से आगे की पंक्तियों में कहीं यह उल्लेखित संदर्भ खुलते हैं तो उन पंक्तियों को प्रस्तुत किया जाना यहाँ हर तरह से आवश्यक था। इसलिये यह सारी व्याख्या ही काव्येतर नहींएक आलोचक के दिमाग की कोरी उपज कही जाये तो कोई अतिशियोक्ति न होगी।
अस्तु डॉ. सिंह का यह कहना भी कि आसपास के वातावरण से चुनी हुई ये वस्तुएँ मन में उस निराकार अनागत की हरकतों का एक मूर्तरूप प्रस्तुत करती हैं, वास्तविक दुनिया जमीन की पकड़ के लिये हवा में हाथ-पैर फैंकने-चलाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। उल्लेखित सदंर्भों की इतनी जीवंत और मार्मिक व्याख्या करने के बावजूद जब डॉ. नामवर सिंह आगे यह कहते हैं कि यह सब कुछ तो मात्र अपरिचित चित्रों की लड़ी हैतो अपनी व्याख्या का मुलम्मा वह स्वयं उतार डालते हैं। यह उनकी कमजोर व्याख्या की एक सच्ची स्वीकारोक्ति नहीं तो और क्या है?
हार वे फिर भी नहीं मानते और आगे लिखते है कि---‘‘इन अपरिचित चित्रों की लड़ी को छोड़कर कविता सहसा बिम्ब निर्माण के लिये दूसरे सोपान की ओर अग्रसर होती है-
        ‘‘फूल जैसे अँधेरे में दूर से ही चीखता हो
        इस तरह वह दर्पनों मे कौंध जाता है।’’
    सवाल यहाँ यह है कि क्या अँधेरे में दर्पन पर चीख अंकित की जा सकती है। अँधेरे में यह कुशल कारीगरी या तो केदारनाथ सिंह कर सकते हैं या डॉ. नामवर सिंह। बेचारे पाठक को तो अँधेरे में  दर्पण ही दिखायी नहीं देगा, फूल की चीख या फूल के बिम्ब की तो बात ही छोडि़ए। गरज यह कि केदारनाथ की इस कविता की बिम्ब योजना हर प्रकार कथ्य की ताकत को कमजोर करती है। कविता की सहज लय को खण्डित करती है। यह योजना वास्तविकता से बचने का प्रयास ही नहीं, वास्तविकता से साक्षात्कार कराने में भी अक्षम है। अँधेरे में फूल का चीखना और दूसरी ओर दरपनों में उसका कोंध जाना’ भले ही ठोस कविता का एक उदाहरण हो और ताजा बिम्ब देने का एक प्रयास। लेकिन डॉ. नामवर सिंह की तेज धार वाला विश्लेषण भी कविता की कमजोरी खोलने वाला भेदिया भी साबित होता है। अगर यह कविता अपने बिम्बात्मक सन्दर्भों  में कमजोर है तो यह कविता का ठोस उदाहरण कैसे हुआ। इस सारे प्रकरण में कमजोरी खोलने वाला भेदिया कोई और नहीं डॉ. नामवर सिंह की आलोचना का ढंग ही ठहरता है, जिसके माध्यम वे चाहे एक बदसूरत तर्क को खूबसूरत बना डालते हैं।
    ‘अँधेरे में परम अभिव्यक्तिकी खोजनामक निबन्ध में मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंकी अन्तिम पंक्तियों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए डॉ. नामवर सिंह यह कहते हैं कि-‘‘निस्संदेह इस कविता का मूल उद्देश्य है अस्मिता की खोज, किन्तु कुछ अन्य व्यक्तिवादी कवियों की तरह इस खोज में किसी प्रकार की आध्यात्मिकता या रहस्यवाद नहीं, बल्कि गली-सड़ी गतिविधि  राजनीतिक परिस्थिति और अनेक मानव-चरित्रों की आत्मा के इतिहास का वास्तविक परिवेश है। आज के व्यापक सामाजिक सम्बन्धों के संदर्भ में जीने वाले व्यक्ति के माध्यम से ही मुक्तिबोध् ने अँधेरे मेंकविता में अस्मिता की खोज को नाटकीय रूप दिया है।’’
इसी निबन्ध में वे आगे लिखते हैं-‘‘कवि मुक्तिबोध के लिये अस्मिता की खोज व्यक्ति की खोज नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की खोज है। एक कवि के नाते उसके लिये परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है। मुक्तिबोध के लिये भाषागत अभिव्यक्ति जीवन की अभिव्यक्ति से जुड़ी हुई।’’
    डॉ. नामवर सिंह के उक्त कथन के आधार पर अगर हम उल्लेखित सारे तथ्यों पर विश्वास कर लें तो उन्हीं के शब्दों में यह भारी मूर्खता होगी क्योंकि अपरोक्त सारी दलीलों से पहले वे अपने निबंध् परिवेश और मूल्यके अन्तर्गत यह फरमाते हैं कि-‘‘शुद्ध  साहित्यिक मूल्योंकी स्थिति जितनी भ्रामक है, उतनी ही भ्रामक है-कविता के स्वतः सम्पूर्ण-संसार की सत्ता’’
    अपनी बात की तरफदारी में वे मुक्तिबोध को भी उद्घृत करते है कि-‘‘साहित्य मनुष्य के आंशिक साक्षात्कारों के बिम्बों की एक माणिका तैयार करता है। ध्यान रहे कि वह सिर्फ बिम्बमणिका है और उसका सारा सत्यत्व और औचित्य मनुष्य के जीवन या अन्तर्जगत में स्थित है, चूँकि सभी मनुष्यों के अन्तर्जगत होते हैं, इसलिये उनके और सत्यत्व की अनुभूति सार्वजनीन होती हैं। लेकिन ध्यान रहे एक अनुभूति का होना सत्यत्व की कसौटी नहीं। हम साहित्य में रम भले ही जायें, उसमें हम सत्य का एक पर्सपेक्टिव, एक दिशा, दृश्य, एक डायमेंशन, एक आभास ही मिलेगा, एक रोशनी ही मिलेगी-सिर्फ एक रोशनी। किन्तु हमें प्रकाश में सत्यों को ढूढ़ना है। हम केवल साहित्यिक दुनिया में नहीं, वास्तविक जीवन में रहते हैं। इस जगत में रहते हैं।’’
प्रश्न यहाँ यह है कि अगर शुद्ध साहित्यिक मूल्यों की स्थिति भ्रामक है जैसा कि डॉ. सिंह मानते हैं और मुक्तिबोध के शब्दों में-‘‘हम साहित्यिक दुनिया में नहीं, वास्तविक जीवन में रहते हैं , इसलिये साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा कैसे किया जाए?’’
    कमाल की बात उक्त चुहलबाजी के बाद भी अँधेरे में कविता पर आवश्यकता से अधिक भरोसा दिलाने का प्रयास डॉ. नामवर सिंह ही करते हैं और इसी कविता की कुछ पंक्तियों को उधृत  करते हैं-
        ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
            उठाने ही होंगे
           तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
    वे इन पक्तियों की व्याख्या कुछ इस प्रकार करते हैं कि-‘‘यहाँ जिस अभिव्यक्ति के खतरे उठाने की बात कही गयी ही, वह केवल शब्दों की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि कर्म की भी अभिव्यक्ति है। पूर्वोत्तर संदर्भ से स्पष्ट है कि यहाँ अभिव्यक्ति से अभिप्राय कविता भी है और क्रान्ति भी।’’
    ‘अँधेरे मेंकविता का यह क्रान्ति-दर्शन किस तरह बाँहों के दर्शन में तब्दील हो जाता है, इसकी व्याख्या डॉ. नामवर सिंह नहीं करते। लेकिन निम्न पंक्तियाँ ब्याख्या तो माँगती ही है-
            ‘पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
             तब कहीं देखने को मिलेंगी बाहें
             जिनमें प्रतिपल काँपता रहता
               अरुण कमल एक।
    इन पंक्तियों के बारे में डॉ. नामवर लिखते हैं कि-‘‘अरुण कमल के लिये दुर्गम पहाड़ों के पार जाने का जोखिम उठाना है।’’
    बाँहों और उनमें काँपते अरुण कमल के लिये उठाये जाने वाले जोखिम की परिणिति क्या एक बौद्धिक स्खलन में नहीं होगी? क्या यह पंक्तियां कवि के रूपवादी रुझान को उजागर नहीं करतीं? अस्तु! यह रूपवादी रुझान यदि कविता है तो यह कैसी कविता है, इसका उत्तर स्वयं डॉ. नामवर सिंह के शब्दों में-‘‘मुक्तिबोध ने काव्य-भाषा को एक नया तेवर दिया है, जो नयी कविता की सामान्य भाषा की तुलना में काफी अनगढ़ और बेडौल लगता है। किंतु इससे केवल यही सिद्ध होता है कि मुक्तिबोध की भाषा काव्यात्मक नहीं है।’’
    यदि मुक्तिबोध् की काव्य-भाषा अनगढ़ और बेडौल है, साथ ही काव्यात्मक भी नहीं है तो इसे कविता कैसे और इसे कविता क्यों माना जाए?
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-15/109,ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001
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आचार्य शुक्ल के उच्च काव्य-लक्ष्ण +रमेशराज



               Rameshraj
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आचार्य शुक्ल के उच्च काव्य-लक्ष्ण

-रमेशराज
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    आचार्य रामचंद शुक्ल अपने निबंध कविता क्या हैमें कविता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-‘‘तथ्य चाहे नर-क्षेत्र के हों, चाहे अधिक व्यापक क्षेत्र के हों, कुछ प्रत्यक्ष होते हैं और कुछ गूढ़। जो तथ्य हमारे किसी भाव को उत्पन्न करे, उसे उस भाव का आलम्बन कहना चाहिए। ऐसे रसात्मक तथ्य आरम्भ में ज्ञानेन्द्रियाँ उपस्थित करती हैं। फिर ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त सामग्री से भावना या कल्पना उनकी योजना करती है, अतः कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भावों में संचार के लिये मार्ग खोलता है। विचारों की क्रिया से, वैज्ञानिक विवेचन और अनुसंधान द्वारा उद्घाटित परिस्थितियों और तथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का मूर्त्त और सजीव चित्रण भी-उसका इस रूप में प्रत्यक्षीकरण भी कि वह हमारे किसी भाव का आलम्बन हो सके-कवियों का काम और उच्च काव्य का लक्षण होगा।’’
    आचार्य शुक्ल के कविता के बारे में व्यक्त किये गये इन विचारों से कविता जिन शर्तों के साथ कविता कहलाती है, वे इस प्रकार हैं-
1. हर प्रकार के क्षेत्र के गूढ़ और प्रत्यक्ष तथ्यों को जब हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ भावना या कल्पना की योजना के द्वारा रसात्मकता की ओर ले जाती है, तब कविता का जन्म होता है।
2. हर प्रकार के रसात्मक तथ्यों को हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ उपस्थित करती हैं। अर्थात् ज्ञान-प्रसार के भीतर ही              भाव-प्रसार होता है। ज्ञान ही भावों में संचार के लिये मार्ग खोलता है।
3. श्रेष्ठ काव्य के लिये आवश्यक है कि कवि अपनी वैचारिक प्रक्रिया द्वारा, वैज्ञानिक विवेचन और अनुसंधान कर परिस्थितियों और तथ्यों का मूर्त्त  और सजीव चित्रण इस प्रकार करे कि वह सामाजिकों के किसी भाव का आलम्बन बन सके।
    जो रसवादी काव्य को भरतमुनि के रससूत्र -‘विभावानुभाव व्यभिचारे संयोगाद रसनिष्पत्तिःके अनुसार केवल भाव का क्षेत्र मानकर चलते हैं और ज्ञान या विचार को रसाभास का आधार बना डालते हैं, ऐसे रसवादियों की मान्यताओं को अतार्किक सिद्ध करने में आचार्य शुक्ल की उक्त मान्यताएँ सही और वैज्ञानिक सूझबूझ से युक्त मानी जानी चाहिए। वस्तुतः विचार के बिना भाव के निर्माण की क्रिया किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। हमारे मन में यदि यह विचार नहीं है कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है, वह हमें नष्ट करने पर तुला है तो पाकिस्तान के प्रति क्रोध और रौद्रता का क्या औचित्य? यदि हम यह न मानें कि राष्ट्र के प्रति हमारे ढेर सारे कर्तव्य हैं, उसकी रक्षा करना हमारा दायित्व है तो राष्ट्र के प्रति प्रेम या भक्ति का रस-परिपाक किस प्रकार सम्भव? यदि हमारी तर्क-शक्ति इस तथ्य तक न पहुँच पाये कि आतंकवादी बेगुनाहों की जानें ले रहे हैं तो उनके प्रति कैसे हो पायेंगे घृणा के चरमोत्कर्ष के दर्शन? अर्थ यह कि हर प्रकार के गूढ़ या प्रत्यक्ष तथ्यों की मार्मिकता, भावात्मकता या रसात्मकता के निर्माण में हर तरह से हमारे विचार ही अहं भूमिका निभाते हैं।
    आचार्य शुक्ल कहते हैं-‘‘बात यह है कि केवल इस बात को जानकर ही हम किसी काम को करने या न करने के लिये तैयार नहीं होते कि वह काम अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक। जब उसकी या उसके परिणाम की कोई ऐसी बात हमारी भावना में होती है जो आल्हाद, क्रोध, करुणा, भय, उत्कंठा आदि का संचार कर देती है, तभी हम उस काम को करने या न करने के लिये उद्यत होते हैं। शुद्ध ज्ञान या विवेक में कर्म की उत्तेजना नहीं होती। कर्म प्रवृत्ति के लिये मन में कुछ वेग का आना आवश्यक है। यदि किसी जन-समुदाय के बीच कहा जाये कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है तो सम्भव है उस पर कुछ प्रभाव न पड़े। पर दारिद्रय और अकाल का भीषण और करुण दृश्य दिखाया जाये, पेट की ज्वाला से जले हुए कंकाल कल्पना के सम्मुख रखे जायें और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्त्त क्रन्दन सुनाया जाये तो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से व्याकुल हो उठेंगे और इस दशा को दूर करने का उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेंगे। पहले ढँग की बात कहना राजनीतिज्ञ या अर्थशास्त्री का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य भावना में लाना कवि का। अतः यह धारणा कि काव्य व्यवहार का बाधक है, उसके अनुशीलन से अकर्मण्यता आती है, ठीक नहीं। कविता तो भाव प्रसार द्वारा कर्मण्य के लिये कर्म-क्षेत्र का और विस्तार कर देती है।’’
    आचार्य शुक्ल के उक्त तथ्यों सहमत होने के बावजूद यहाँ निवेदन सिर्फ इतना है कि माना हमारा व्यवहार मात्र काम के अच्छे-बुरे लाभदायक, हानिकारक कारणों के ही द्वारा सम्पन्न नहीं होता। लेकिन यह भी तय है कि उस काम के परिणाम की कोई ऐसी भावना भी नहीं होती जो यकायक मन में आल्हाद, क्रोधादि का संचार कर देती हो। जिसे आचार्य शुक्ल भावना मानकर चल रहे है, यह वही वैचारिक कारण हैं, जिनका परिणाम काम के अच्छे-बुरे, लाभदायक, हानिकारक रूप में प्रत्यक्षीकृत होता है। अन्तर सिर्फ इतना है कि उनकी दृष्टि यहाँ कोरी भावात्मक है, ज्ञानात्मक नहीं। किसी जन समुदाय के बीच यह कथन कि अमुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रतिवर्ष उठा ले जाता है’’ इसलिये मन में किसी प्रकार का वेग नहीं ला सकता क्योंकि इससे हमें देश के वास्तविक हालात का सही-सही ज्ञान का पता नहीं मिल पाता अर्थात् वास्तविक हानि के ज्ञान से हम वंचित रह जाते हैं, जबकि दारिद्र, अकाल के भीषण और करुण दृश्य, पेट की ज्वाला से जले हुए कंकाल और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई माता का आर्त्त-क्रन्दन उसी जन समुदाय को इस बात की पूरी जानकारी दे देता है कि अमुक देश के द्वारा प्रतिवर्ष इतना रुपया उठा ले जाने के कारण देश की ऐसी हालत हो गयी है।
    शोषण से त्रस्त जन समुदाय के बीच जो लोग मात्र देश के दारिद्रय, अकाल और जान-माल की दुर्दशा को देखकर यह सोचेंगे कि हाय हमारे देश की क्या हालात हो गयी है, इसका कुछ निदान होना चाहिएउनके मन में करुणा जागृत हो जायेगी, लेकिन जिन लोगों के मन में यह विचार आयेगा कि अमुक व्यक्ति या देश ने हमारा धन  हड़पकर ऐसे त्रासद करुणामय हालात पैदा किये हैं, वह हमारा शत्रु है, उसे इस करतूत का दण्ड मिलना चाहिए तो उनके मन में विद्रोह जागृत हो जायेगा।
    कहने का अर्थ यह है कि कविता को विचार और भाव के इस बिन्दु पर लाकर जब तक खड़ा नहीं किया जाता, जब तक कोरे भावात्मक तरीकों से कविता का कवितापन तय किया जाता है, तब तक आचार्य शुक्ल कितना भी चीखें कि-‘‘सूर और तुलसी आदि स्वच्छन्द कवियों ने हिन्दी कविता को उठाकर खड़ा ही किया था कि रीतकाल के शृंगारी कवियों ने उसके पैर छांटकर उसे गन्दी गलियों में भटकने के लिये छोड़ दिया। फिर क्या था नायिकाओं के पैरों में मखमल के सुर्ख बिछौने गड़ने लगे। किसी ने षड्ऋतु की लीक पीटते हुए तो कहीं शरद की चाँदनी से किसी विरहणी का शरीर जलाया, कहीं कोयल की कूक से कलेजों के टूक किये, कहीं किसी को प्रमोद से प्रमत्त किया। उन्हें तो इन ऋतुओं को उद्दीपन मात्र मान संयोग और वियोग की दशा का वर्णन करना रहता था। उनकी दृष्टि प्रकृति के इन व्यापारों पर तो जमती नहीं थी, नायक या नायिका ही पर दौड़-दौड़ कर जाती थी, अतः उनके नायक या नायिका की अवस्था-विशेषकर प्रक्रति की दो चार इनी-गिनी वस्तुओं से जो संबंध होता था, उसी को दिखाकर वे किनारे हो जाते थे।’’
लेकिन डॉ. शुक्ल के उक्त तथ्य इस नाते बेजान भी लगते हैं  कि जब कविता को मात्र रस के आधार पर ही परखना है तो रस तो रीति काल के शृंगारी कवियों के काव्य में भी आता है और सौभाग्य या दुर्भाग्यवश ऐसे काव्य के रसिकों की संख्या सर्वाधिक है।
    बहरहाल कविता के प्रश्न पर आचार्य शुक्ल जितने सुलझे हुए दिखलायी देते हैं, उतना ही वह उलझाव तोल्स्तोय के भ्रातत्ववाद, कबीर, केशव, दादू आदि को खारिज कर मात्र तुलसी की स्थापना की गरज से पैदा भी करते हैं।
    अस्तु! कविता विचार की सत्ता को नकार कर स्पष्ट नहीं की जा सकती। कविता के प्रति यदि हमारे पास एक सही और सार्थक वैचारिक दृष्टि है, जो लोक या मानव की दशा-दुर्दशा पर केन्द्रित होती हुई, ऐसी भावात्मकता की ओर ले जाती है, जिसमें सत्य और शिवतत्व का समन्वय हो तो उसकी सौन्दर्यात्मकता असंदिग्ध है।
    वस्तुतः विचारों की सुन्दरतम् प्रस्तुति का नाम ही कविता है। भाव तो उन विचारों से जन्य ऊर्जा है। विचार लोक या मानव-सापेक्ष हों तो उनसे निर्मित भाव, लोक या मानव की सात्विक रागात्मकता का परिचय न दें, ऐसा असम्भव है। 
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