Saturday, April 23, 2016

आचार्य शुक्ल की कविता सम्बन्धी मान्यताएं -+रमेशराज



               Rameshraj
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आचार्य शुक्ल की कविता सम्बन्धी मान्यताएं
                                                    -+रमेशराज
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    ‘‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं।’’
    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्ध ‘‘कविता क्या है’’ में कविता के बारे में दिये गये उक्त तथ्यों की सार्थकता इन तर्कों के साथ बेहद सारगर्भित है कि-‘‘ कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक सामान्य की भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिये अपना पता नहीं रहता। वह अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है।’’
    ‘कविता क्या हैजैसे जटिल प्रश्न को सुलझाते हुए आचार्य शुक्ल ने निश्चित रूप से कविता के प्रश्न को लेकर बेहद मौलिक और सारगर्भित तथ्य प्रस्तुत किये हैं। कविता के व्यक्तिवादी स्वरूप को लोकमंगल की भाव-भूमि पर खड़ा करने का श्रेय आचार्य शुक्ल के हिस्से में ही जाता है। किंतु आचार्य शुक्ल के उल्लेखित कथन कई शंकाओं को भी जन्म देते हैं जिनका समाधान किया जाना आवश्यक है-
1. आत्मा की वह कौन-सी मुक्तावस्था है, जो ज्ञानदशा कहलाती है?
2. हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कैसे बन जाती हैइस रस-दशा के निर्माण में [ बिना आत्मा से कोई सहयोग लिये ] हृदय किस प्रकार अपनी भूमिका निभाता है?
3. कविता के संदर्भ में क्या हृदय और आत्मा को अलग-अलग रखकर कोई कवि कविता का सृजन कर सकता है तथा क्या कोई आस्वादक इस स्थिति में किसी कविता का आस्वादन ग्रहण कर सकता है?
4. जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल यह कहते हैं कि-‘‘विभाव, अनुभाव के ज्ञान से रसात्मक अनुभूति होती है [ रस मीमांसा पृ. 412 ], तब क्या उनकी यह अवधारणा उनके इन्हीं तथ्यों के विपरीत नहीं जाती? यदि विभाव, अनुभाव का ज्ञान, रस नामक अनुभूति का निर्माण करता है तो इसके बीच में यह कथित हृदय मुक्त होकर कहाँ से टपक पड़ता है। देखा जाये तो जिसे आचार्य शुक्ल हृदय की मुक्तावस्था बताते हैं, वह मुक्तावस्था हमारे आत्मा का वह लोकोन्मुखी आत्म-विस्तार है, जिसके द्वारा वे कथित हृदय के स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित मंडल को ऊपर उठाकर लोक सामान्य भाव-भूमि पर ले जाते हैं?
    यही कारण है कि यदि उनके तर्कों को उनके ही संदर्भों के उसी रूप में स्वीकार लें, तो ऐसी कई दिक्कतें अनुभव होती हैं जिनका समाधान हृदय की मुक्तावस्थासे संभव नहीं । प्रश्न है कि आचार्य शुक्ल की व्यक्तिगत सत्ता रीतिकालीन काव्य के प्रति लोकसत्ता में समाहित क्यों नहीं हो पाती? केशव के काव्य के प्रति उनके हृदय की कथित मुक्तावस्था इतनी संकुचित और हृदयहीन क्यों हो जाती है कि वे केशव को काव्य की प्रेतबताने लगते हैं?
     इस प्रकार तो आचार्य शुक्ल के हृदय की मुक्तावस्था की रस-दशाकविता की परिधि से बाहर ही धकेल देनी पड़ेगी, भले ही उसके माध्यम से बहुत से आस्वादकों का हृदय लोक-हृदय में विलीन हो जाता हो।  इसलिये कविता को स्पष्ट करने में हृदय की मुक्तावस्था और उसका लोक हृदय में विलीन हो जानेका सिद्धान्त कविता के संदर्भ में अधूरा प्रतीत होता है।
    कविता हमारे लोक-जीवन की एक ऐसी रागात्मक प्रस्तुति है, जो एक तरफ रागात्मक सम्बन्धों में मानवीय गुणवत्ता का समावेश करती है, वहीं उन रागात्मक सम्बन्धों को अपनी सुरक्षात्मक वैचारिकता के साथ विभिन्न प्रकार के रसात्मक-बोधों  से आश्रयों को सिक्त करती है। इस प्रकार के रसात्मक-बोध की आलम्बन सामग्री आचार्य शुक्ल के अनुसार भले ही-‘‘कल कारखाने, गोदाम, स्टेशन, एंजिन, हवाई जहाज, अनाथालयों के लिये चैक काटना, सर्व स्वहरण के लिये जाली दस्तावेज बनाना, मोटी की चरखी घुमाना, एंजिन में कोयला झोंकना आदि विषयों के स्थान पर वन, पर्वत, नदी, आकाश, मेघ, नदी, आदि’’ से वंचित रही हो, लेकिन इस प्रकार के विषय भी कविता को रस परिपाक तक ले जाते हैं, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता।              शुक्लजी कहते हैं-‘‘ जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदि युगों से परिचित है, जिन रूपों को सामने पाकर वह नरजीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध है।’’
    आचार्य शुक्ल के इन तथ्यों में गाम्भीर्य है, किन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है कि नरजीवन जिन रूपों से आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, वह उन्ही रूपों से ठीक उसी प्रकार लुब्ध और क्षुब्ध आज भी होता रहे। अपनी अधिकांश दिनचर्या का हिसाब कल कारखानों और नगरीय जि़न्दगी में गुजारने वाले व्यक्तियों के जीवन के मूल रूप तो आज कारखाने और नगर ही हैं। अतः उसकी दृष्टि का वैचारिक और भावात्मक विकास इन्हीं कारखानों और नगरों से जुड़ा न हो, यह सम्भव नहीं। वर्ग-संघर्ष की कविता तो इन्हीं कल कारखानों के नगरीय जीवन में जन्मी, बढ़ी और पली है तथा इन्हीं नगरीय विवशताओं, विडंबनाओं, विभीषिकाओं तथा विसंगतियों- असंगतियों के बीच विभिन्न प्रकार की रसात्कमता से सिक्त हुई है। नगरीय जीवन को विभिन्न कोणों से उभारती यह कविता आश्रय के मन को भले ही परंपरागत तरीके से रसात्मक बोध से सिक्त न करती हो, लेकिन नये तरीके से ही सही, रसाद्र तो करती ही है। आचार्य शुक्ल कविता पर बात करते समय       सभ्यता के आवरण और कविताउपशीर्षक देकर उपरोक्त तथ्यों की ओर संकेत देते भी हैं, किन्तु इन संकेतो में कवि-कर्म का क्षेत्र नगरीय और कारखानों की जि़न्दगी पर केन्द्रित नहीं। फिर भी वे सभ्यता के आवरणों के बीच कवि-कर्म के अन्तर्गत कविता के द्वारा प्राकृत रूपों का जिस प्रकार प्रत्यक्षीकरण कराते हैं, उसमें अर्थ-ग्रहण के साथ-साथ बिम्ब-ग्रहण की योजना कविता को निस्संदेह ऊर्जस्व बनाती है।
    वस्तुतः कविता का सृष्टि संसार, वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति का सामजस्य होने पर ही विचारों को भावात्मक ऊर्जा से लैस करता है। कवि दीन-दुखियों का आर्तनाद, अनाथों, अबलाओं पर अत्याचार यदि कारखानों, राजनीतिक परिवेश, महाजनी व्यवस्था के अंतर्गत देखता है तो इसकी वाह्य प्रकृति और आन्तरिक प्रकृति का सामाजस्य भले ही प्रकृति के आरम्भिक रूपों के साथ घटित न हुआ है, लेकिन इसमें हर प्रकार की भावात्मक व्यवस्था का विकास सम्भव है।
    आचार्य शुक्ल के इन तथ्यों की सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि-‘‘जो केवल अपने  शरीर-सुख की सामग्री प्रकृति में ढूँढा करते हैं, उनमें उस रागात्मक सत्व की कमी है जो व्यक्त सत्ता मात्र के साथ एकता की अनुभूति में लीन कर के व्यापकत्व का आभास देता है। बुद्धि की क्रिया से हमारा ज्ञान जिस अद्वैत भूमि पर पहुँचता है, उसी भूमि तक हमारा भावात्मक हृदय भी इस सत्व के प्रभाव से पहुँचता है। इस प्रकार अन्त में जाकर दोनों पक्ष की वृत्तियों का समन्वय हो जाता है। समन्वय के बिना मनुष्यत्व की साधना पूरी नहीं हो सकती।’’
    किंतु कविता के संदर्भ में इस समन्वय की यदि प्रकृति और मनुष्य के सम्बंधों के बीच ही इतिश्री हो जाती तो शायद अलग लिखने को कोई विषय न रहता। जहाँ समूचा का समूचा परिवेश भूख-गरीबी, शोषण, सांप्रदायिकता, दहेज, बलात्कार जैसी विकृतियों, विसंगतियों के बीच फँसा हो, दिन-रात कलपुर्जों के बीच मानव एक कलपुर्जा बन कर रह जाता हो, साम्राज्यवादी शक्तियाँ पूरे के पूरे माहौल को एक शीतयुद्ध की आग में झोंक देती हों, अथक परिश्रम के बावजूद मानव भूखा और दुखी मन सो जाता हो, महानगरों के निवासी खिड़कियों से ही यदा-कदा धूप और चाँदनी के दर्शन करते हों। ऐसे जटिल और अन्तहीन समस्याओं से ग्रस्त मानव को ‘‘मधुर सुसज्जित, भव्य, विशाल, विचित्र या रूखे-बेडौल, कर्कश, उग्र, कराल या भयंकर रूप में उसके सामने प्रस्तुत हुई प्रकृति का चिर साहचर्य’’ कैसे प्राप्त होगाउसमें किस प्रकार वह अनुराग जागृत हो सकेगा, जो ‘‘मनुष्य और प्रकृति के दोनों पक्षों की वृत्तियों का समन्वय’’ कर सके।
    प्रकृति के समन्वय के अभाव में भले ही मनुष्यत्व की साधना  पूरी न हो पाती हो, परन्तु मनुष्य के जीवन से उठायी गयी संघर्ष-गाथाओं का सृष्टि संसार, प्रकृति और मनुष्य के समन्वय के संसार से कम मार्मिक, रसात्मक और सौन्दर्यमय नहीं होता। बशर्ते कलपुर्जों से लेकर महानगरीय त्रासदियों के संस्कारों से कवि का संस्कार-जगत अलग-थलग न हो। मनुष्य के मन में संस्कार रूप में बसी त्रासदियों भरी दुनिया का करूणामय आलोक चाहे विरोध, विद्रोह, असंतोष, आक्रोश जैसी विभिन्न प्रकार की भावात्मक स्थितियाँ लेकर उभरे, लेकिन इस प्रकार की            रचना-सृष्टि चिरसाहचर्य युक्त और उसकी रागात्मकता सत्य से परिपूर्ण होती है।
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-15/109,ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630 

डॉ. ध्रुव की दृष्टि में कविता का अमृतस्वरूप +रमेशराज




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डॉ. ध्रुव की दृष्टि में कविता का अमृतस्वरूप

+रमेशराज 
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    डॉ. आनन्द शंकर बाबू भाई ध्रुव अपने कविताशीर्षक निबन्ध मेंकविता का अर्थ-‘‘अमृत स्वरूपा और आत्मा की कला रूप वाग्देवी हमें प्राप्त हो।’’ बताकर सिद्ध करते है कि कविता-
1.   अमृत स्वरूपा है
2.   आत्मा की कला है
3. वाग्देवी-रूपा है
    डॉ. ध्रुव कविता को अमृत-स्वरूपा इसलिये मानते हैं क्योंकि-‘‘कवि की सृष्टि, ऐहिक सृष्टि-सी क्षणभंगुर नहीं है। ऐहिक जगत नश्वर है, इतना ही नहीं, यह भी कहा जा सकता है कि कवि की सृष्टि की तुलना में ऐहिक जगत मृतवत है।’’
     प्रश्न यह है कि यदि ऐहिक जगत की सृष्टि क्षणभंगुर, नश्वर, मृतवत् है तो क्या कवि की सृष्टि ऐहिक जगत में एहिक जगत की विशेषताओं से युक्त नहीं होती? ऐहिक जगत की सृष्टि भी ऐसी अनेक विशेषताओं से युक्त होती है, जिसकी क्षणभंगुरता का ढिंढोरा भले ही हम पीट लें, लेकिन यह सृष्टि भी कविता की सृष्टि की तरह अमर्त्य होती है। ऐहिक जगत भी नश्वर नहीं है, उसकी जीवंतता हमें कालचक्र के अन्तर्गत सतत् दिखलायी पड़ती है। यदि ऐहिक जगत का अर्थ डॉ. ध्रुव के लिये कोई व्यक्ति विशेष, घटना विशेष, काल विशेष रहा हो तो यह बात अलग है। कवि भी तो इसी ऐहिक जगत का प्राणी है। फर्क सिर्फ इतना है कि वह जड़वत् या मृत न होकर संवेदनशील और उदारता के गुणों से युक्त होता है।
     कविता के मनोहर और अद्भुत भावों के कथित दिव्य और अलौकिक लोक का निर्माण इसी ऐहिक जगत पर निर्भर है, यदि यह क्षणभंगुर, नश्वर और मृतवत होगा तो काव्य-जगत की या तो सृष्टि होगी ही नहीं, यदि होगी तो वह भी नश्वर और मृतवत होगी। अतः उनका यह कहना भी कि-‘‘भावनाओं का पूर्ण रूप तो परमात्मा के ही ज्ञान में अवस्थित है, कवि के समक्ष तो उसके रूप-खंड ही आभासित होते रहते हैं। यही आभास शब्द के रूप में प्रत्यक्ष होकर हमारी अन्तर्रात्मा में प्रविष्ट होकर, हमें उन रूप-खण्डों का बोध कराता है।’’
    डॉ. ध्रुव के इन तर्कों को थोड़ी देर मान भी लें तब भी प्रश्न यह है कि यदि भावनाओं का पूर्णरूप परमात्मा के ही ज्ञान में अवस्थित है तो मार्क्सवादी चिन्तन के तहत उस परमात्मा ने कैसे रूप-खंड का आभास दिया कि कवि की अमृत स्वरूपा कविता ने परमात्मा के ही सारे रूप-खंडों को चकनाचूर कर डाला। कविता के संदर्भ में बात यदि इस तरीके से कही गयी होती कि-कविता यदि अमृत स्वरूपा है भी तो इस संदर्भ में कि वह आश्रयों अर्थात् कविता के आस्वादकों को ऐसा अमृत प्रदान करती है जिसके तहत सामाजिकों में लोकमंगल, मानवमंगल की वैचारिक ऊर्जा जागृत होती है तो शायद कविता के अमृत स्वरूप पर आपत्ति न होती । लेकिन जब डॉ. ध्रुव की मान्यता ही यह है कि-‘‘यह सर्वदा उपयुक्त है कि हम सौंदर्य क्या हैइसे तो जान लें और उर्वशी को केवल कल्पनामात्र कहें। प्रेम क्या है? यह तो बराबर समझ लें और राम-सीता के अस्तित्व का निषेध करें। हृदय में पाप की अनुभूति तो करें और दुष्टों, असुरजनों एवं नरक आदि को न मानें, अंतरात्मा में दिव्य प्रेम और शान्ति को तो स्वीकारें और यह कहें कि बैंकुण्ठ और कैलाश जैसा कोई स्थान नहीं। इसीलिए तो अमर्त्य जगत, मृत्य जगत से परे है।’’
    बात यदि मानने-मनवाने तक है तो चलिए माने लेते है कि उर्वशी, राम-सीता, दुष्ट, असुर, नरक, बैंकुण्ठ और कैलाश आदि का अस्तित्व था या है। लेकिन इस अस्तित्व का बोध कराने के पीछे आखिर कवि का मंतव्य क्या रहा है? क्या इस प्रश्न की प्रासंगिकता को दरकिनार कर दें? यदि यह प्रश्न डॉ. ध्रुव के काव्य के पन्नों के अस्तित्व की तरह सार्थक है तो उपरोक्त पात्रों के अस्तित्व की लोक-सापेक्षता अर्थात् लोक प्रभाव अवश्य देखना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं है तो कविता का अमृतस्वरूप, परमात्मा के अस्तित्व में विलीन कर अलौकिक ही बना दिया जाना चाहिए। उसका इस नश्वर-मृतवत लोक से भला क्या वास्ता?
    कविता को आत्मा की कला मानते हुये डॉ. ध्रुव लिखते हैं कि-‘‘आत्मा के विशिष्ट गुण यथा चैतन्य, व्यापन और अनेकता में एकता, कविता में अवश्य होने चाहिए।’’
चेतन्यपूर्णता का जिक्र वे ‘‘ सब जंग जीतने चलो बिगुल बज रहे हैं- यह कविता है।’’ कहकर करते हैं। यदि यही कविता की चेतन्यशीलता है जिसमें बिना किसी उद्देश्य के हर किसी को जंग जीतने के लिये बिगुल बजाकर एकत्रित किया जाता है तो इस कविता की चेतन्यशीलता के तहत धर्मी, अधर्मी, संत, दुष्ट, समाजवादी, साम्राज्यवादी आदि में से चाहे जिसका सर क़लम किया जा सकता है और यह दिशाहीन चेतन्यशीलता लोक का मंगल कम, अमंगल ज्यादा करेगी। फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कविता में चेतन्यशीलता वैचारिक ऊर्जा अर्थात् भावात्मकता तो जरूरी है, लेकिन जिस वैचारिक ऊर्जा की भावात्मकता मित्र-अमित्र में फैसला न कर कोरे जंग के बिगुलों के साथ शरीक हो जाये, उसे कविता की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?
    कविता के एक अन्य गुण व्यापनशीलता की डॉ. ध्रुव इस प्रकार व्याख्या करते हैं कि जिस प्रकार आत्मा पिण्ड में एवं ब्रह्माण्ड में अर्थात् व्यष्टि और समष्टि में, बुद्धि में, हृदय में एवं कृति अर्थात् नैतिकता में और इन तीनों से परे परमात्मा स्वरूप-स्वस्वरूपानुसंधा अर्थात् धार्मिकता में विराजमान है, उसी प्रकार कविता, कविता की उत्तोत्तम भावना [कन्सैप्ट] को सार्थक करने वाली कविता भी मनुष्य की बुद्धि, हृदय, नैतिकता और अंतरात्मा अर्थात् धार्मिक आवश्यकताओं की परितुष्टि करने में समर्थ होनी चाहिए।’’
    कविता के व्यापनशील गुण की व्याख्या में डॉ. ध्रुव ने आत्मा को पिण्ड, ब्रहमाण्ड, व्यष्टि, समष्टि, बुद्धि, हृदय, नैतिकता और धार्मिकता में एक साथ बिठाकर जो कुछ प्रस्तुत किया है, उससे आत्मा के प्रति असारहीनता तो इसी संदर्भ में देखी जा सकती है कि हृदय तो मात्र रक्त आपूर्ति का माध्यम होता है, उसमें आत्मा के स्वरूप के दर्शन किस प्रकार किये जा सकते हैं? दूसरे चाहे नैतिकता हो, चाहे धार्मिकता, इन सब वैचारिक              अवधारणाओं का सीधा-सीधा संबंध हमारी बुदद्धि से होता है। अतः आत्मा की अवस्थिति के प्रति भटकाव आत्मा की स्थिति और उसके स्वरूप को स्पष्ट करने में ही जब असमर्थ है तो कविता की उत्तोत्तम भावना को कविता के संदर्भ में कैसे सार्थक माना जा सकता है? यही कारण है कि डॉ. ध्रुव की यह सारी की सारी व्यापनशीलता ऐसे लगती है जैसे कविता नहीं, कविता के किसी कथित आध्यात्म पक्ष पर प्रकाश डालने हेतु हो।
    कविता के संदर्भ में आत्मा का अस्तित्व तो उस रागात्मक चेतना में है जो अपनी सत्यपरक वैचारिक ऊर्जा की सुगन्ध विभिन्न भावों के रूप में उकेरती है। रागात्मक चेतना की यह सत्योन्मुखी वैचारिक ऊर्जा रति, हास, क्रोध, विरोध, विद्रोह, जुगुप्सा आदि के रूप में जब तक काव्य में नहीं आयेगी, तब तक उत्तोत्तम भावना को कविता के संदर्भ में सार्थक नहीं ठहराया जा सकता। यह उत्तोत्तम भावना तभी उत्तोत्तम हो सकती है जबकि इसकी वैचारिक ऊर्जा लोक-सापेक्ष, जन-सापेक्ष हो।
    डॉ. ध्रुव लिखते हैं कि-‘‘एक ही केन्द्रबिन्दु या सूत्र के चतुर्दिक अनेक पात्रों, प्रसंग, उक्तियों, वर्णनों आदि की योजना करने में ही कवि की महिमा है।’’
    डॉ. ध्रुव का कविता के पक्ष में दिया यह तर्क सार्थक तो अनुभव होता है, लेकिन वह केन्द्रबिन्दु या सारतत्व कौन-सा और कैसा हो, उसे स्पष्ट करने में यदि यह मेहनत की गयी होती तो कविता न सही कवितांश तो स्पष्ट हो ही सकता था। जैसे एक ही केन्द्रबिन्दु रति के चतुर्दिक पात्रों, प्रसंगों, उक्तियों, वर्णनों की रसात्मकता पति-पत्नी के दायित्वपूर्ण जीवन की रागात्मक चेतना को बोध करा सकती है, जबकि उसी केन्द्र बिन्दु या सूत्र रतिके चतुर्दिक कुछ पात्र प्रसंग, उक्तियों के वर्णन यौन, कुच, नितम्ब के बिम्बों की रसात्मकता बन सकते हैं। इस स्थिति में केन्द्रबिन्दु या सूत्र की सत्योन्मुखी-असत्योन्मुखी गुणशीलता पर महत्व देना क्या आवश्यक नहीं?
 कविता के वाग्देवी रूप को स्पष्ट करते हुए डॉ. ध्रुव लिखते हैं कि-‘‘हम कविता को देवी रूप में पूजते आये हैं। उसकी झिलमिलाती ज्योति जड़ और चेतन पदार्थों से गहन अंधकार का नाश करती है।’’
    यहाँ निवेदन इतना है कि जब कविता वाग्देवी है और उसकी झिलमिलाती ज्योति जड़ और चेतन पदार्थों के गहन अंधकार का नाश करती आयी है तो उस वाग्देवी का पूजन करने के बजाय उसके हाथ में साहस के ऐसे वैचारिक औजार थमा दिये जायें जो शोषक और साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों के आदमखोर जंगल को काट-छाँटकर मुनष्य को शांति और सुरक्षा के माहौल में जीने लायक बना सके। वर्ना कथित परमात्मा की लौकिक सृष्टि यूँ ही रोती-बिलखती रहेगी और कविता का वाग्देवी स्वरूप इन प्रश्नों के घेरे में आ जायेगा कि क्या यही है कविता का अमृतस्वरूप और वाग्देवी रूप? क्या इसी का नाम कविता है?
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पाश्चात्य विद्वानों के कविता पर मत +रमेशराज




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पाश्चात्य विद्वानों के कविता पर मत  

+रमेशराज 
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    प्रख्यात आलोचक श्री रमेशचन्द्र मिश्र अपनी पुस्तक पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्तमें अपने निबन्ध काव्य कला विषयक दृष्टि का विकासमें पाश्चात्य विद्वानों का एक वैचारिक सर्वेक्षण प्रस्तुत करने से पूर्व कविता के प्रश्नपर लिखते हैं कि-‘कविता से यदि यह प्रश्न किया जाए कि तुम क्या हो? शायद वह लड़की, युवती, मुग्धा, वृद्धा होती तो अपने रंगरूप, वृत्ति-प्रवृत्ति, आकार-प्रकार, उन्मेष-परिवेश के सम्बन्ध में अथवा अपने प्रेमी, पति, सहोदर, पिता के सम्बन्ध में कुछ न कुछ बताने की स्थिति में होती। तब भी समग्रता या सूक्ष्मता से नहीं। हम सब यह जानते हैं कि हम क्या हैं? किन्तु जब हम यह बताने लगते हैं कि हम ये हैंतो बताते हुए, बताये जाने वाले व्यक्ति की पूर्णता खंडित हो जाती है। यही स्थिति कविता के मानवीकृत रूप से पूछने पर हो सकती है।..... कविता अपने आप में क्या है? कविता का जो कुछ स्वर-स्वरूप-प्रभाव हमें दिखाई देता है, वह सहृदय पाठक-समीक्षक के मस्तिष्क पर पडे़ हुए प्रभाव की सूचना-भर देता है। इस समवैत में शाश्वत कुछ भी नहीं है। शाश्वत है मानवीय वृत्ति-प्रवृत्ति, जो काव्य-भाषा के रूप में मुखर होती रही है। काव्य-पाठ या श्रवण के पश्चात् जो अनुभूति पाठक-समीक्षक या श्रोता समीक्षक की होती है, उसको विशुद्ध भाव नहीं कहा जा सकता, वह यौगिक भाव है, इसलिये उसे मनोवैज्ञानिक प्रभावमात्र नहीं कह सकते।’’
    श्री रमेशचन्द्र मिश्र का कविता से सीधे-सीधे किया गया यह प्रश्न कि वह क्या है? जिस सजीवता और जीवन्तता के साथ उठाया गया है, आगे चलकर यह सजीवता इस संदर्भ में क्षीण हो जाती है कि इस प्रश्न का उत्तर दो बिन्दुओं- क. समग्रता और सूक्ष्मता के अभाव, ख. आस्वादकों के मन पर कवितानुभूति का विशुद्ध भाव न रहकर यौगिक भाव बन जाना, पर जाकर कविता की कोई सार्वभौमिक और अन्तिम परिभाषा नहीं बनने देता। इसकी वज़ह बेहद साधारण है।
    जिस प्रकार हममात्र हमही नहीं। हम एक सामाजिक प्राणी भी हैं। अतः यदि हमसिर्फ हमके ही बारे में सोचेंगे तो हमारा समाज सापेक्ष व्यक्तित्व पीछे छूट जायेगा। इसके लिये जरूरी यह है कि हमका उत्तर मात्र हमसे ही नहीं लिया जाये, बल्कि उस समाज से भी हमके बारे में पूछा जाये, जिसमें वह रहता है। तब शायद हमके बारे में कोई प्रामाणिक निष्कर्ष निकाल सकें। ठीक इसी तरह कविता की सूक्ष्मता और समग्रता का प्रश्न भी मात्र कविता से नहीं जुड़ा है, उसके सम्बन्ध पाठन, वाचन, दर्शन आदि के समय आस्वादकों से जुड़े होते हैं, वह आस्वादन द्वारा उससे प्रभाव ग्रहण करता है। आस्वादक से पूछे जाने पर यह प्रभाव ही उसकी सूक्ष्मता, समग्रता की जानकारी दे सकता है। कविता के तत्त्वों की पहचान जब आस्वादकों द्वारा ही तय की जानी है तो इसके लिये आवश्यक यह कि वह कविता के सार्वभौम रूप-गुण की वैज्ञानिक और सार्थक खोज करें।
    इस पुस्तक में प्रकाशित पाश्चात्य विद्वानों की कविता परिभाषित करने के प्रयासों का मूल्यांकन यदि इसी दृष्टि से करें तो प्लेटो कविता को सामाजिक कसौटी पर परखते हुए घोषणा करते हैं कि-‘सामाजिक न्याय-नियम की उपेक्षा करके कोई कविता सिद्ध  नहीं हो सकती।प्लेटो उपयोगिताको ही कविता की मुख्य कसौटी मानते हैं। उनके अनुसार-‘‘कविता सामाजिक सीमाओं में ही सहृदय को आनंद देती है।’’
    कविता की समाजसापेक्ष मूल्यवत्ता से भला कौन इन्कार कर सकता है, लेकिन यदि सामाजिक न्याय-नियम सामाजिकता को ही विखंडित करने वाले या किसी समाज विशेष, सम्प्रदाय विशेष के हों, उनकी वैचारिक मूल्यवत्ता का यह कथित सार्वभौमिक, शाश्वत और पूर्णरूप क्या कविता को तय कर सकेगा? ऐसी कविता सामाजिक सीमाओं में किसी समाज विशेष, सम्प्रदाय विशेष को तो कथित रूप से आनंदित कर सकती है, लेकिन यह आनंद दूसरे समाज के लिये घातक भी हो सकता है, इस खतरे से बचा नहीं जा सकता।
    लोंगिनुस अपनी काव्य शास्त्रीय पुस्तक पेरिइप्सुसमें उद्दात्तको काव्य की आत्मा मानते हुए अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता और विशिष्टता पर विशेष बल देते हैं। उनकी दृष्टि में-‘‘हृदय से निकली हुई कविता पाठक को आत्म विस्मृत करने में समर्थ होती है।’’
    ‘उद्दात्तको काव्य की आत्मा मानकर अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता और विशिष्टता पर विशेष बल देने वाले लोंगिनुस अंततः कविता को पाठक की आत्म-विस्तृति का साधन तय करते हैं, तब प्रश्न यह है कि पाठक की यह आत्मविस्मृति की अवस्था क्या उसे एक ऐसा आस्वादक नहीं बना डालेगी, जिसे अपने सारे आत्म को दरकिनार करना पड़ेगा और इस स्थिति में वह विचारशून्य आस्वादक बन जायेगा, जिसे आस्वादनोपरांत या आस्वादन के समय यह भी पता नहीं चलेगा कि उसने क्या आस्वादित किया है अथवा कोई आस्वादन किया भी है या नहीं। ऐसी स्थिति में कविता की मूल्यवत्ता-गुणवत्ता का अनुभव कैसे हो सकेगा और किस तरह होगी कविता परिभाषित?
    होरेस की कविता के प्रति धारणा है कि-‘कविता चित्रकारी की तरह होती है, कोई चित्र आपको निकट से अच्छा लगता है, कोई दूर से, कोई मंदप्रकाश में अच्छा लगेगा, कोई तेजप्रकाश की पृष्ठभूमि में। किसी के प्रति आकर्षण एक बार होकर रह जाता है, किसी के प्रति बार-बार होता है।’’ [ भारतीय काव्य समीक्षा, पृ0 81 ]
     कविता चित्रकारी नहीं होती, जिसे आस्वादित करने के लिये आस्वादकों को कभी कविता के पास आना पड़े और कभी उसे खड़े होकर ताकना पड़े या उसके मर्म को जानने के लिये कभी मंद तो कभी तेज प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़े। साथ ही कविता ऐसी लड़कियों का दर्शन भी नहीं है जिसके रसिक [ आस्वादक ]  कभी कविता बनी लड़कियों से एक बार आकर्षित होकर रह जायें या कभी बार-बार आकर्षित होते रहें।
    ऐलीगेरीदान्ते को काव्य के माध्यम से दुःखान्तता की स्थिति ग्राहय नहीं। उन्होंने काव्य का लक्ष्य सुख-आनंद मानते हुए कहा है कि-‘‘कविता में मधुर या सुन्दर की अभिव्यक्ति मधुर या सुन्दर के माध्यम से ही हो सकती है।’’        
सवाल यह है कि दुःखान्तता अर्थात् करुणा के बिना जब कविता का ओजमय स्वरूप प्राप्त ही नहीं हो सकता तो ऐसी कविता का औचित्य क्या है? आचार्य शुक्ल के अनुसार-‘‘करुणा की गति रक्षा की ओर होती है।’’ दांते की बात मानें तो कविता से लोक-रक्षा का तत्व ही गायब हो जायेगा। या शोकान्तता के बिना कविता का अधूरा पक्ष ही परिभाषित या उजागर हो सकेगा।
    जान डैनिस की मान्यता है कि धर्म में जो महान या उद्दात है, वही काव्य में आकर विस्मय-विमुग्ध करने वाला, सामरस्य दशा प्रदान कराने वाला, आनंदानुभूति कराने वाला, व्याप्ति की स्थिति कराने वाला होता है।’’        
कोई भी कथित धर्म चाहे जितना महान या उद्दात्त हो, लेकिन उसकी काव्य-प्रस्तुति यदि आश्रयों को मात्र विस्मय, विमुग्ध्ता और आनंदानुभूति ही प्रदान करेगी तो प्रश्न यह है कि कथित विस्मय, विमुग्धता और आनंदानुभूति, कविता के माध्यम से लोकरक्षा के तत्व का निर्वाह कैसे करा पायेगी। कला को सिर्फ आनंद या कला के प्रति प्रस्तुत करने के प्रयोजन में धर्म की महानता, उद्दात्तता को कैसे सुरक्षित रख सकेगी?
एक अन्य काव्यचिन्तक डॉ. सैमुअल जानसन भले ही काव्य को कला के लिये सत्यको मूल आधार मान लें, लेकिन कला तो मात्र साधन होती है और साध्य सत्य। अतः साधन और साध्य का यह घालमेल किसी भी तरह कविता को स्पष्ट नहीं कर सकता।
    दरअसल कलावादियों की एक दिक्कत यह रही है कि वे जीवन में भले ही समाजसापेक्षता की महत्व देते आये हों, लेकिन बात जब कविता के संदर्भ में उठती है तो उसके उपयोग पक्ष से वे नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। कला यदि कला के लिये, कविता यदि कविता के लिये ही प्रासंगिक है तो उसका सामाजिकों से आस्वादन-सम्बन्ध जोड़ने का औचित्य ही क्या है? साथ ही कविता को किसी भी प्रकार की वैचारिक ऊर्जा से लैस करने से फायदा क्या? जब सही और गलत की कलावादियों के पास कोई कसौटी है ही नहीं तो कला के नाम पर निरर्थक उल्टे-सीधे शब्दों का चयन कर कुछ भी अभिव्यक्त कर देना औचित्य से परे है।
डेविस ह्यूम की यह मान्यता भी कविता के संदर्भ में सारहीन और समाज या लोकविमुख ही मानी जाएगी कि-‘‘सही क्या है? इसकी कोई कसौटी नहीं है। निर्णय और आवेग की स्थिति में बहुत अन्तर है। इसलिये दर्शन या सदाचरण के नियम कविता के अवरोधक न बनें।’’
    जहाँ आदमी की बुद्धि गलत और सही का फैसला न कर सके और उसे यह भी लगे कि दर्शन या सदाचरण सही है, पर कविता में अवरोधक का कार्य करते हैं। इस प्रकार की जानबूझकर सही और गलत के प्रति ओढ़ी गयी अनभिज्ञता से कविता किसी प्रकार स्पष्ट नहीं की जा सकती।
निर्णय और आवेग की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं है, यह तो एक दूसरे के पूरक, सहभागी, सहयोगी ही हैं। बिना निर्णय के तो आवेग का कोई अस्तित्व ही नहीं। जब तक हम यह निर्णय नहीं ले लेते कि अमुक व्यक्ति हमारा शत्रु  या मित्र हैं, तब तक हमारे मन में क्रोध या रति का आवेग आ ही नहीं सकता।
    कविता के संदर्भ में गेटे का चिन्तन काफी सूझ-बूझ से युक्त लगता है। वह लोकानुभूति और काव्यानुभूति को पृथक नहीं मानते, उनका मानना है कि-‘‘कवि अपनी शैली के द्वारा ही अपने अन्तस, अपने व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता है।’’
    वास्तविकता भी यही है कि कवि का व्यक्तित्व समाज के आलम्बन धर्म के पक्ष से, उसके आलम्बनों के प्रति लिये गये निर्णयों से बनता है और वह समाज रूपी आलम्बन धर्म की प्रस्तुति अपने निर्णयों के साथ समाधिलीन होकर करता है। इसलिये कविता का लोक और वास्तविक लोक कोई अलग-थलग बिन्दु नहीं रह जाते। लेकिन कविता के संदर्भ में यह दृष्टि [ कवि की ] लोकोन्मुखी भी हो सकती है और लोक-अहितकारी भी। अतः गैटे के चिन्तन की खामी यह है कि उन्होंने कवि के चिन्तन पर ही विशेष बल देकर जिस प्रकार कविता का पक्ष प्रस्तुत किया है, वह कविता की अधूरी पकड़ ही करता है। जो कुछ भी कवि लिख दें, वह कविता हरगिज नहीं हो सकता।
    गेटे की तरह ए.सी. ब्रेडले भी कविता का सूक्ष्म मनौवैज्ञानिक विवेचन करते हुए लिखते हैं कि-‘काव्य में हमें जो कुछ मिलता है, देश-काल की ऐसी सीमाओं में अवस्थित नहीं है और यदि उसकी ऐसी अवस्थिति हो भी तो वहाँ हमें जो प्राप्त होता है, उसमें बहुत कुछ बाहर से ग्रहीत होता है। अतः उन भावों, इच्छाओं और प्रयोजनों का वह सीधे संस्पर्श नहीं करता। वह तो केवल चिन्तनात्मक कल्पना को ही छूता है। यह कल्पना रिक्त अथवा भाववृत्ति शून्य नहीं होगी। यह यथार्थ अनुभव की सिद्धियों से ओत-प्रोत होती है, यद्यपि यह फिर भी चिन्तनात्मक रहती है।’’
    कविता को कवि के प्रयोजन एवं उस प्रयोजन को आस्वादकों पर पड़े प्रभाव के बिना किसी प्रकार तय नहीं किया जा सकता अर्थात् कविता में प्रस्तुत सामग्री आस्वादकों को अपनी भावात्मक या ऊर्जस्व अवस्था किस प्रकार का संदेश किस प्रकार की शैली में कैसे माध्यम से दे रही है, जब तक इसे तय नहीं किया जाता, तब तक कविता के प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता। इस संदर्भ में ब्रेडले की तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने कविता का उनके आस्वादकों से सीधा सम्बन्ध जोड़ इस तथ्य की जानकारी दी कि-‘‘आस्वादक कविता के माध्यम से कवि की चिन्तनात्मक कल्पना, जो यथार्थ अनुभवों की सिद्धियों से ओत-प्रोत होती है, अपनी चिन्तनात्मक अवस्था में करते हैं।’’
     लेकिन कविता की कसौटी मात्र उसमें व्यक्त विचार ही नहीं होते, बल्कि उन विचारों को प्रस्तुत करने का माध्यम शिल्प व तरीका [ शैली ] भी उससे जुड़े होते हैं। अतः कविता को तय करने के लिये कविता में व्यक्त कलात्मक मूल्यों के माध्यम से वैचारिक मूल्यों को साथ-साथ रखकर उसके आस्वादकों पर पड़े प्रभाव अर्थात् इन तीनों बिन्दुओं पर जब तक परखा नहीं जाता, तब तक कविता क्या है, कविता क्या है? बनी रहेगी।
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डॉ. नगेन्द्र की दृष्टि में कविता +रमेशराज



               Rameshraj
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डॉ. नगेन्द्र की दृष्टि में कविता


+रमेशराज 
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‘‘कविता क्या है? यह एक जटिल प्रश्न है। अनेक आलोचक यह मानते हैं कि कविता की परिभाषा और स्वरूप विवेचन संभव नहीं। परन्तु मेरा मन उतनी जल्दी हार मानने को तैयार नहीं है।’’
यह वाक्य डॉ. नगेन्द्र के हैं और डॉ. नगेन्द्र जटिल से जटिल प्रश्न का समाधन, बिना निराश हुए, बिना उद्वेलित हुए खोज ही लेते हैं। अतः कविता के बौद्धिक चमत्कार से, बिना कोई छूत रोग का ग्रहण किए, ‘कविता क्या हैजैसे जटिल प्रश्न का समाधान प्रस्तुत न करें, असम्भव है। इसलिए कविता की परिभाषा के प्रश्न पर निराश नहीं होना चाहिए। डॉ. नगेन्द्र अपने कविता क्या हैनिबंध में एक उदाहरण देकर, इस जटिल प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास इस प्रकार करते हैं--
        ‘‘श्याम गौर किम कहहुँ बखानी  
        गिरा अनयन नयन बिनु पानी।’’
    इन पंक्तियों को डॉ. नगेन्द्र तुलसीकी अर्धाली कविता का उत्कृष्ट उदाहरण मानते हुए और बिना कोई संदेह किये कहते हैं कि-‘‘राम और लक्ष्मण के सौंदर्य से प्रभावित सीता की यह सहज भावाभिव्यक्ति है। श्यामांग राम और गौरवर्ण लक्ष्मण के सौंदर्य का वर्णन किस प्रकार संभव हो सकता है? क्योंकि वर्णना की माध्यमा इन्द्रिय-वाणी, नेत्रविहीन है और सौंदर्य वर्णन के माध्यम नेत्रों के वाणी नहीं हैं। अर्थात् नेत्र उनके सौंदर्य का आस्वाद तो कर सकते हैं, किन्तु उसका वर्णन नहीं कर सकते और वाणी उस सौंदर्य का वर्णन करने में तो समर्थ है, किन्तु उसका वास्तविक आस्वाद वह नहीं कर सकती। इसका मूल भाव है, सौन्दर्य के प्रति सात्विक आकर्षण-इन शब्दों में पुरुष के सौंन्दर्य के प्रति नारी का सहजोन्मुखी भाव व्यंजित है।’’
    डॉ. नगेन्द्र द्वारा प्रस्तुत की गई तुलसी की यह अर्धाली माना संदेह-विहीन कविता का उत्कृष्ट उदाहरण है, लेकिन हमारा संदेह दूसरा है-
1. क्या कविता का अर्थ मात्र तुलसी की यह अर्धाली है?
2. क्या कविता का अर्थ मात्र शृंगार-रस की कविता है?
    यदि ऐसा नहीं है तो डॉ. नगेन्द्र ने कविता के प्रश्न का समाधान मात्र रति जैसे सकारात्मक पक्ष में ही क्यों खोजा? फिलहाल इन प्रश्नों को दरकिनार कर भी दें, तब भी इन्द्रिय-बोध के जाल में उलझे, उक्त उदाहरण की व्याख्या कच्ची और अवास्तविक है। उक्त पंक्तियों का मूल भाव वे सौंदर्य के प्रति सात्विक आकर्षणमानते हैं। क्या इस प्रकार का कोई भाव या मूल भाव होता है?
    चलो, इस प्रश्न में भी नहीं उलझते और डॉ. नगेन्द्र की ही बात को आगे बढ़ाते हैं कि-‘‘प्रस्तुत सूक्ति में औचित्य अनुमोदित अर्थात् नैतिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शुद्ध, जीवन के अत्यंत मधुर भाव, किशोर वय आकर्षण की अभिव्यंजना है।’’
    इसका सीधा अर्थ यह है कि कविता औचित्य द्वारा अनुमोदित अर्थात् नैतिक, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शुद्ध, जीवन के अत्यंत मधुर भाव, किशोर वय के आकर्षण की अभिव्यंजना होती है।मतलब यह कि कविता जैसे जटिल प्रश्न का मिल गया समाधान?
    अब भी किसी को उलझन अनुभव हो रही हो, सौंन्दर्य के प्रति सात्विक आकर्षण का भाव समझ में न आया हो, औचित्य द्वारा अनुमोदित नैतिक अभिव्यंजना पल्ले न पड़ी हो तो अभी डॉ. नगेन्द्र निराश नहीं हैं। वे आगे लिखते हैं कि-‘‘उक्त पंक्तियों की अभिव्यंजना की दृष्टि से परीक्षा कीजिए-प्रस्तुत सूक्ति में कवि का साध्य है-सौन्दर्य द्वारा उत्पन्न प्रभाव, जिसमें रति-उल्लास, क्रीडा आदि अनेक भावों का मिश्रण है।’’
लीजिए-उक्त व्याख्या से कविता की एक और परिभाषा गढ़ गयी कि-‘कविता सौन्दर्य द्वारा उत्पन्न प्रभाव का सम्प्रेषण होती है।सौन्दर्य क्या होता है, डॉ. नगेन्द्र की इन व्याख्याओं से पाठक स्वयं ही समझ गए होंगे, साथ ही यह तथ्य भी समझ में आ ही गया हो कि रति, उल्लास की तरह, ‘क्रीड़ाभी एक भाव होता है।
आइए थोड़ा और आगे बढ़ें-डॉ. नगेन्द्र कहते हैं  कि-‘‘वक्ता की मुग्धावस्था के कारण अभिव्यंजना और भी कठिन होती जाती है। अतः कवि ने वर्णना की चेष्टा नहीं की-‘किमि कहहुँ बखानीके द्वारा अर्थात् वर्णन की असमर्थता की स्वीकृति के द्वारा, सौन्दर्य की अनिर्वचनीयता की व्यंजना की है। यह अनिर्वचनीयता अतिशय की द्योतक है। किन्तु अनिर्वचनीय होते हुए भी वह अनुभवातीत नहीं है। अर्थात् यह सौंदर्य इतनी तीव्र अनुभूति उत्पन्न करता है कि उसको व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं।’’
    डॉ. नगेन्द्र की उक्त व्याख्या से अब कविता की कोई नयी परिभाषा गढ़ना तो संभव नहीं जान पड़ रहा है, हाँ यह अवश्य है कि इससे कविता के कवितापान को तय करने में कुछ सहायता अवश्य मिल सकती है। मसलन्-कविता की विशेषता यह हो कि वह सौन्दर्य की इतनी तीव्र अनुभूति उत्पन्न करे कि सब कुछ अनिर्वचनीय हो जाए, जैसे गूंगे के लिए गुड़ का स्वाद, जिसे क़ाग़ज पर उतारने की अनुमति बिल्कुल नहीं दी जानी चाहिए।
    खैर! डॉ. नगेन्द्र की मान्यता को हम गूँगा मानने की धृष्टता तो कर ही नहीं सकते, अतः उनके बताए गुणों से आइए-कविता और उसके कवितापन को तय करने का प्रयास करें।     जटिल होता कविता का प्रश्न अभी सरलता की ओर नहीं है, उसे सरल बनाने के लिए डॉ. नगेन्द्र की ही व्याख्या का सहारा लें। वे आगे लिखते हैं-‘‘अब नाद सौंदर्य की दृष्टि से लीजिए-उद्घृत अर्धाली में अत्यंत प्रसन्न पदावली का प्रयोग है, जिसमें सूक्ष्म वर्णमैत्री की नाद-सौंदर्य की अनुगूँज है। कवि ने पवर्ग और कवर्ग के वर्णों की आवृत्ति और दूसरे चरण में न की आवृत्ति द्वारा सहज वर्ण सामजस्य पर आश्रित शब्द-संगीत का सृजन किया है, उधर लघु मात्रिक चौपाई-छन्द, मुग्धा के मन की इस भाव-तरंग का अत्यंत उपयुक्त माध्यम है।’’
     सौंन्दर्य भले ही स्पष्ट न हो पाया हो, लेकिन जब बात सौन्दर्य की चल रही है तो उसमें नाद सौन्दर्य को भी क्यों न जोड़ा जाए? क्योंकि डॉ. नगेन्द्र ने क वर्ग’ ‘प वर्गऔर की आवृति के सहज वर्ण सामजस्य से ही तो लघुमात्रिक चौपाई छन्द, मुग्धा  के मन की भाव-तरंग का अत्यंत उपयुक्त माध्यम बनाया है, नहीं तो कोई दीर्घ मात्रिक-छन्द उल्लेखित सहज वर्णों से विहीन, इस दृष्टांत में आ जाता तो कविता, कविता नहीं रहती। सौन्दर्य, सौन्दर्य न बन पाता। गूँगे के गुड़ के स्वाद का गोबर हो जाता। फिलहाल ऐसा कुछ नहीं हुआ है, अतः इसे लेकर मन में कोई शंका भी नहीं है। शंका है तो डॉ. नगेन्द्र के मन में। प्रश्न उबाल ले रहे हैं तो उन्हीं जे़हन में। इसीलिए वे प्रश्नों की एक लम्बी सूची लेकर पाठकों के सम्मुख हैं और पूछ रहे हैं-‘‘अब प्रश्न यह है कि इनमें से किस तत्त्व का नाम कविता है? मूलभाव अर्थात् सौन्दर्य चेतना का? उक्ति वक्रता अथवा अलंकार के चमत्कार का? अथवा वर्णमैत्री  का? या फिर छंद संगीत का?
    इस लेख में हमसे सबसे बड़ी धूर्त्तता यह हो गई है कि डॉ. नगेन्द्र के कविता के बारे में प्रस्तुत किए जा रहे                   समाधान से पूर्व ही हमने कविता की दो परिभाषाएँ गढ़ डालीं, जबकि डॉ. नगेन्द्र तो कविता क्या है’, प्रश्न का समाधान खोजने का प्रयास कर रहे हैं। अतः उन्हीं की बात पर आते हैं। वे अपने प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखते हैं-‘‘मूल भाव कविता नहीं है, संयोग से यहाँ यह भाव सौन्दर्यानुभूति है। भाव कविता नहीं है। न जाने कितने स्त्री-पुरुष और तिर्यक यौनि में भी जाने कितने नर-मादा, एक दूसरे के यौवन-सौन्दर्य के प्रति आकृष्ट होते हैं। किन्तु इस आकर्षण को कविता नहीं कहा जा सकता।’’
    हम भी मान लेते हैं कि मूलभाव यहाँ कविता नहीं हैं, किन्तु भाव, सौन्दर्यानुभूति कैसे हो जाता है, वह भी संयोग से? यह तथ्य पकड़ से परे है। यदि यौनाकर्षण की भावनात्मकता सौन्दर्यविहीन होती है तो क्या इसी कारण की गई दिनकरकी उर्वशीयौन, कुच चुम्बन, आलिंगन के सारे के सारे आसनों का ब्यौरा प्रस्तुत करने के बावजूद महाकाव्य की संज्ञा से कैसे विभूषित हो गई? जिसके अधिकांश स्थलों, प्रसंगों में पढ़ने में [ बकौल डाॅ. नगेंद्र ] उन्हें सौन्दर्यानिभूति के दर्शन हुए, ब्रह्मानन्द सहोदर रस मिला। अस्तु! वे ऐसे मूल भाव को फिर भी कविता नहीं मानते, तो नहीं मानते।
    बात अब उनके दूसरे प्रश्न की- तो वे मानते हैं कि-‘‘उक्ति वक्रता भी कविता नहीं होती, क्योंकि  हम अपने नित्यप्रति के व्यवहार में अपने आशय को, न जाने कितनी बार अनेक वचन-भंगिमाओं के द्वारा व्यक्त करते रहते हैं। बोलचाल में निरंतर हम न जाने कितने मुहावरों के रूप में लाक्षणिक प्रयोग करते रहते हैं। विरोधाभास का चमत्कार भी सभा चतुर व्यक्तियों के लिए साधारण चमत्कार है। नवीन आलोचना-शास्त्र की शब्दावली में उक्ति वक्रता, लाक्षणिक प्रयोग, अलंकार चमत्कार आदि में  कल्पना का वैभव है।....अब रह जाता है-संगीत तत्त्व-वर्ण-संगीत और लक्ष्य-संगीत। वह भी कविता नहीं है।’’
    बात सुलझते-सुलझते फिर उलझ गई है और इस उलझन का मूल कारण वह लौकिक व्यवहार है, जो डॉ. नगेन्द्र की दृष्टि में पृथक-पृथक रूप में कविता के उन गुणों को समाहित किये रहता है, जो उसके कवितापन को तय करते हैं। चूँकि डॉ. नगेन्द्र को कविता लोक से नहीं, कविता से ही तय करनी है, अतः लोक के प्राणियों का व्यवहार उन्हें कविता में दिखलाई दे, वह उसे लोक के स्तर पर कविता के श्रेणी में रखने के कतई पक्षधर नहीं। अतः डॉ. नगेन्द्र के सामने पुनः यही प्रश्न है कि-‘‘तो फिर वास्तव में कविता क्या है?’’
    लीजिए अब उन्होंने प्रस्तुत कर ही दिया इस प्रश्न का उत्तर-‘‘इन सभी तत्त्वों का समन्वय कविता है। यह समस्त अर्धाली ही कविता है। सौन्दर्य कविता नहीं है, वक्रता कविता नहीं है। अर्थात् समान्तर न्यास कविता नहीं है, वर्ण संगीत कविता नहीं है, चौपाई की लय भी कविता नहीं है। इन सबका समंजित रूप ही कविता है-अर्थात् रमणीय भाव, उक्ति, वैचित्रय, और वर्ण, लय, संगीत तीनों ही मिलकर कविता का रूप धारण करते हैं।’’
    डॉ. नगेन्द्र की यदि बात मानें तो उपरोक्त तीनों तथ्यों के समन्वित हो जाने से कविता बन जाती है। लेकिन एक शंका फिर  भी घिर आती है कि रामचरित मानस के वे प्रसंग या काव्यांग इस कविता की परिभाषा में कैसे समायोजित किये जाएँगे, जिनमें मन्थरा, कैकैयी, सूपनखा, कुम्भकरण, बाली, रावणादि के अरमणीय रंग हैं। क्या लघु मात्रिक चौपायी छंद में वर्णित ऐसे अरमणीय प्रसंग वर्ण लय, संगीत, अलंकार और सौन्दर्यानुभूति का निर्जीव आभास नहीं देने लगेंगे? यह ऐसे प्रश्न हैं, जिनके बिना कविता क्या हैका प्रश्न सुलझता हुआ दिखाई नहीं देता। बहरहाल डॉ. नगेन्द्र ने तो अरमणीय पक्ष को दृष्टि में रखे बिना कर ही डाला है कविता के जटिल प्रश्न का हल। इसलिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम।
    डॉ. नगेन्द्र के पदचिह्नों पर चलते हुए, अन्य विद्वान भी कविता को ऐसी ही ख़ूबसूरती प्रदान कर सकते हैं और अब आसानी के साथ कह सकते हैं किकविता क्या है? यह जटिल प्रश्न नहीं हैं। कोई कह सकता है कि ‘‘कविता लोगों से भरे हुए भवन में अनिवर्चनीयता का बिहारीकी तरह वचनीय आभास है या जायसीके केले के तनों को उल्टा रखकर पद्मावती के निम्नांगों की आभा है।’’ अन्य बता सकते हैं कि-‘‘कविता राधा का रेशमी नाड़ा खींचने की एक सूरदासमयसौन्दर्यानुभूति है। कुलमिलाकर कविता नारी पुरुष संबंधों की, शुद्ध धार्मिक दृष्टि से औचित्यपूर्ण ऐसी भावात्मकता है, जिसके रस या आनन्द में डूबकर ही, मर्म को समझा जा सकता है।
     हम जैसे बौद्धिक-छूत की बीमारी से ग्रस्त लोगों की विडम्बना यह है हम मानते हैं कि-‘‘रमणीय का अर्थ केवल मधुर नहीं है। कोई भी भाव, जिसमें हमारे मन को रमाने की शक्ति हो, रमणीय है। इस दृष्टि से क्रोध, ग्लानि, शोक, आक्रोश, असंतोष, विरोध, विद्रोह आदि भावों के भी विशेषरूप रमणीय हो सकते हैं।’’ तब डॉ. नगेन्द्र ने कविता क्या है?’ जैसे जटिल प्रश्न को सुलझाने के लिए क्रोध, शोक, ग्लानि आदि के रमणीय पक्ष का भी कोई उदाहरण प्रस्तुत कर अपने साहस का परिचय क्यों नहीं दिया? सच तो यह है कि उनकी अधूरी सौन्दर्य-दृष्टि ने जो स्थापना की है, उससे  कविता का कवितांश ही स्पष्ट हो पाता है। कविता का प्रश्न ज्यों की त्यों अपनी विजयी मुद्रा में खड़ा है और कह रहा है कि-‘कविता क्या है?’
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डॉ.नामवर सिंह की आलोचना के अन्तर्विरोध +रमेशराज



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डॉ.नामवर सिंह की आलोचना के अन्तर्विरोध           

+रमेशराज
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    ‘‘एक नये सृजनशील कवि के नाते मुक्तिबोध काव्य और जीवन, दोनों ही क्षेत्र में छायावाद के प्रतिक्रियावादी मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करना अपना कर्तव्य समझते थे। उन्होंने, विशेषरूप से कामायनीमें घुसकर उन सामाजिक-ऐतिहासिक शक्तियों का उद्घाटन किया, जिन्होंने हिन्दी में व्यक्तिवादी, रोमांसवादी, छायावादी भावुकता तथा भाववादी-आदर्शवादी विचारधारा का प्रणयन किया। इस प्रयास में उन्होंने पूँजीवाद जैसे काव्येतर शब्दों के प्रयोग से भी परहेज न किया, क्योंकि उनकी स्पष्ट धारणा है कि-‘पूँजीवाद शब्द के प्रयोग से न केवल उन्हें परहेज है, वरन् भय भी है, क्योंकि यह शब्द उनकी साहित्यिक अभिरुचि पर आघात भी करता है। इस मनोवृत्ति के पीछे वर्गीय हित काम कर रहे हैं, क्योंकि पूँजीवाद शब्द के बारम्बार प्रयोग से संलग्न जो भाव विद्रोहपूर्ण होकर गरीब-मध्यम वर्ग को आन्दोलित करती हैं, वे भावधाराएँ यदि साहित्य में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित हुई तो उनके वर्ग-हित को आघात पहुँचने की सम्भावना है। फलतः राष्ट्रीयता’, ‘मानवीयता,’ ‘भारतीय संस्कृति,’ ‘जातीयताआदि शब्दों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए, जिससे कि अन्य की चेतना धुंधली  हो सके।’’
    अपनी पुस्तक कविता के नये प्रतिमानमें दिये गये उक्त कथन से स्पष्ट है कि यह कथन कविता और मानव-जीवन में पूँजीवाद जैसे शब्द और वर्ग-संघर्ष का मुक्तिबोध के माध्यम से डॉ. नामवर सिंह का एक सार्थक और सारगर्भित वकालतनामाहै।
    मगर दूसरी तरफ कविता को परिभाषित करते हुए कविता के नये प्रतिमान नामकइसी पुस्तक में वे यह भी कहते हैं- ‘‘औसत नयी कविता क्रिस्टल या स्फटिक की सघन संरचना के समान है। जब काव्यकृति को निर्मित्ति कहा जाता है तो उसका स्पष्ट अर्थ है कि उसमें वस्तु-तत्त्व या आत्म-तत्त्व में कोई माध्यम नहीं है। स्फटिक की रचना संबंधी विज्ञान के नवीनतम शोधों का तो यहाँ तक कहना है कि स्फटिक में सब कुछ संरचना ही है, तत्त्व जैसी कोई चीज़ नहीं। क्योंकि तत्त्व-विश्लेषण में अलग से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए किसी काव्य-कृति में अनायास ही रूप, वस्तुभाव और उद्देश्य को एक के बाद एक पा जाने के अभ्यस्त आलोचकों को यदि नयी कविता लोहे का चना मालूम हो अथवा केवल कुछ नये बिम्बों का पुंज प्रतीत हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।’’
    डॉ. नामवर सिंह के उपरोक्त दोनों कथनों को मिलाकर देखें तो उनके आलोचना-कर्म का एक पक्ष जितना ओजस् है, दूसरा पक्ष उतना ही ठंडा-रहस्यमय और अँधेरे की सत्ता का पोषक है तथा वर्गचेतना और मानवीयचेतना को धुंधला और धीमा करने वाला है।   यदि कविता किसी स्फटिक की संरचना के समान होती है, जिससे आत्म या वस्तु-तत्त्व अलग से प्राप्त नहीं होना है तो यह भी तय है कि मुक्तिबोधजो आरोप प्रतिक्रियावादी, भाववादी, आदर्शवादी, राष्ट्रवादी विचारधरा का प्रणयन करने वालों पर लगाते हैं, उन्हीं आरोपों की गिरप्फत से डॉ. नामवर सिंह भी नहीं बच पाते हैं। उनकी आलोचना का सारा का सारा नैतिक कर्म, अन्ततः उसी किले की दीवारें मज़बूत करने में जुटा हुआ महसूस होता है, जिसका नाम पूँजीवाद है।
    वस्तुतः डॉ. नामवर सिंह अपने निर्मित्ति सिद्धान्तके द्वारा कविता के नाम पर, ऐसे कवियों की कविताओं को सार्थक ठहराने की कोशिश करते हैं, जिनसे तत्त्व या सत्व रूप से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होता।
    उनके इसी पुस्तक के निबन्ध काव्य-भाषा और सृजनशीलताको ही लीजिए डॉ. सिंह, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के माध्यम से पाठकों के समक्ष सही वक़्त पर उठायी गयी सही बातको इस प्रकार रखते हैं-‘‘आज की कविता को जाँचने-परखने के लिये, जो अब सचमुच प्रास के रजतपाशसे मुक्त हो गयी है, अंलकारों की उपयोगिता अस्वीकार कर चुकी है और छन्दों की पायल उतार चुकी है, में काव्य-भाषा का प्रतिमान शेष रह गया है, क्योंकि कविता के संघटन में भाषा के प्रयोग की मूल और केन्द्रीय स्थिति-कविता उत्कृष्टतम शब्डॉन का उत्कृष्टतम क्रम है।’’
    सही वक़्त पर उठायी गयी, इस सही बात के माध्यम से डॉ. नामवर सिंह द्वारा जाँची-परखी गयी, इसी पुस्तक में उद्धृत  रघुवीर सहायकी नया शब्दशीर्षक कविता में काव्य-भाषा का शेष रह गया प्रतिमानऔर उत्कृष्टतम शब्दों का उत्क्रष्टतम क्रमदेखिए-
            ‘‘कोई और कोई कोई और-और अब भाषा नहीं
            शब्द अब भी चाहता हूँ
            पर वह, जो कि जाये वहाँ-वहाँ होता हुआ
            तुम तक पहुँचे
            चीज़ों के आरपार दो अर्थ मिलाकर सिर्फ एक
            स्वच्छन्द अर्थ दे
            मुझे दे! देता रहे जैसे छन्द केवल छन्द
            घुमड़-घुमड़ भाषा का भास देता हुआ
            मुझको उठाकर निःशब्द दे देता हुआ।’’
    अगर उत्कृष्टतम शब्दों का उत्कृष्टतम क्रमयही है, जिसमें वहाँ-वहाँ, पता नहीं कहाँ-कहाँ होता हुआ अर्थ, चीज़ों के आर-पार जाता है और अन्त में एक ऐसा छन्द बन जाता है, जो घुमड़-घुमड़कर ऐसी भाषा का भास देता है कि पूरी की पूरी कविता को निःशब्द या निष्प्राण कर जाता है तो मानना ही पड़ेगा कि ऐसी कविताएँ प्रास के रजतपाशसे मुक्त होने के बाद अलंकारों की उपयोगिता को ही अस्वीकार नहीं कर चुकी हैं, इनके भीतर से वह अर्थवान् आत्मतत्त्व भी ग़ायब है, जिसका जि़क्र छायावादी आलोचक डॉ. नगेन्द्र रागात्मकताके रूप में ही सही, किन्तु करते हैं।
    कुल मिलाकर ऐसी कविताएँ डॉ. नामवर सिंह के स्फटिक सिद्धान्त द्वारा पुष्ट होती नज़र आती हैं, जो न तो कर्म के मर्म को सहलाती है और न इनके विश्लेषण से अलग-अलग कोई तत्त्व प्राप्त होता है, न भाषा, न शब्द और न अर्थ।
    डॉ. नामवर सिंह का एक अन्य कथन उनकी इसी पुस्तक के निबन्ध काव्य-बिंब और सपाटबयानीसे प्रस्तुत है-
‘‘ कविता बिम्ब का पर्याय नहीं है। जहाँ तक मूर्तिमत्ता का प्रश्न है, वह तो बिम्बवादी काव्य-सिद्धांत को अपनाये बिना भी सम्भव है। जैसा कि कुछ प्रगतिवादी कवियों की सफल काव्य-कृतियों में दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिये नागार्जुनकी अकाल और उसके बादशीर्षक कविता।’’
    उक्त कथन की परख के लिये कथित बिम्बवादी सिद्धान्त की खिल्ली उड़ाने वाला इसी पुस्तक से एक उदाहरण प्रस्तुत है-
            ‘जल रहा है
            जवान होकर गुलाब
            खोलकर होंठ जैसे आग
            गा रही है फाग।
    ‘टटके बिम्ब की ताज़गीके लिये विशेष रूप से डा. नामवर सिंह द्वारा उल्लेखित इस केदारनाथ सिंह की कविता ने क्या प्रास के रजतपाश से मुक्ति पा ली है? या अलंकार की उपयोगिता को यह कविता अस्वीकार करती है? क्या इसमें छायावादी रोमांस के संस्कारों से कोई वर्जना है? उत्तर है-नहीं। तब इसे नयी कविता के रूप में कैसे परखना है। यह तो छायावादी संस्कारों की प्रगतिशील आलोचना है, इसीलिये संशय घना है, क्योंकि इसका बिम्ब आग और गुलाब से बना है। लेकिन यह कविता अपने संक्षिप्त रूपाकार में अधिक भावों और विचारों की जटिल स्थिति को कैसे व्यंजित कर जाती है, हमारे लिये न सही, क्या डा. नामवर सिंह के लिये भी बताना मना है।
अस्तु, अपने निबंध काव्य-बिम्ब और सपाटबयानीके अंतर्गत उन्होंने जितनी भी कविताओं के उदाहरण दिये है, वे नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बादकी मूर्तिमत्ता के समक्ष बेजान और बौने हैं।
    इसी पुस्तक के विसंगति और बिड़बनानिबंध के अन्तर्गत किसी भी क्रीड़ा-कौशल का उपयोग करने और क्रीड़ा-कौशल द्वारा रूमानी छायावादी भावुकता को तोड़ने का साहस [ वो भी सफलता के साथ ] रघुवीर सहाय की कविता किस प्रकार करती है, इसे भी देखिए-
            ‘‘तुम उसका क्या करती हो मेरी लाडली
            अपनी व्यथा के संकोच से मुक्त होकर
            जब मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।’’
    डॉ. नामवर सिंह इस कविता के बारे में लिखते हैं-‘‘एक लाडलीशब्द पूरी कविता को और ही रंग दे देता है।’’
    ‘लाड़लीशब्द भारतीय संस्कारों में बेटी के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। यदि इस ओर डॅाक्टर साहब का ध्यान चला गया होता तो यह कविता, समूची हिन्दी-कविता के लिये एक उपलब्धि बन गयी होती। ऐसे में इसकी विसंगति या विडम्बना, रूमानी छायावादी संस्कारों के साथ-साथ जाने कितने अन्य संस्कारों को भी तोड़ती ?
    इसी पुस्तक के अनुभूति की जटिलता और तनावनामक निबंध में अनुभूति कितनी जटिल और तनाव कितना तीव्र और गहरा है, आइये इसे भी देखें-
            ‘क्षण भर तुम्हें निहारूँ
            अनजानी एक-एक रेखा पहचानूँ
            चेहरे की, आँखों की
            अन्तर्मन की
            और हमारे साझे की अनगिनत स्मृतियों की
            ..........................................
            धीरे-धीरे
            धुंधले में चेहरे की रेखाएँ मिट जायें
            केवल नेत्र जगें
            ................
            केवल बना रहे विस्तार-हमारा बोध
            मुक्ति का
            सीमाहीन खुलेपन का ही ।
    डॉ. नामवर सिंह इस कविता के बारे में कहते हैं कि-‘‘इस प्रकार प्रेम की इस कविता में भी मुक्ति के बोधकी अभिव्यक्ति है, जो कदाचित् बच्चनके प्रेम-गीत के सम्मुख कठिन बौद्धिकता का कथन प्रतीत हो। कहना न होगा कि यथार्थ और अधिक सघन है। संदर्भ के अनुभव ही इस कविता में अनुभूति की जटिलता भी है, सघनता भी और विसंवादी पक्षों की एक कुशल समाहिति भी।’’
    हरी घास पर प्रेमिका को प्रेमी द्वारा निहारने [ वो भी क्षण भर ] से चेहरे-आँखों, अन्तर्मन और साँझ की अनगिन स्मृतियों की यदि एक-एक रेखा पहचानी जा सकती है और उसी क्षण में  धुंधलका [ वो भी धीरे-धीरे ] जीवंत हो उठे, रात का एहसास जागने लगे, चेहरे की रेखाएँ मिटने लगें, उन्हें ढूँढने के लिये मुक्ति के बोध में सीमाहीन खुलापन पसर जाये तो मानना ही पडे़गा कि इसकी अनुभूति बड़ी ही जटिल रही होगी? क्योंकि यह सब एक ही क्षण में हुआ है।
    भले ही उपरोक्त कविता किसी तनाव को संदर्भित न करे, लेकिन अर्थ-मीमांसकों का इस कविता को पढ़ते और अर्थ ग्रहण करते जो तनावहोगा, उसे ही इस नयी कविता का [ अपनी सुविधानुसार ] एक नया प्रतिमान जान या मान सकते हैं। लेकिन अर्थ-मीमांसक कृपया ध्यान रखें-इसकी कोई रसात्मक व्याख्या न करें, क्योंकि डॉ. सिंह इन पंक्तियों को प्रस्तुत करने से पूर्व यह तथ्य प्रकट कर चुके हैं कि इस ‘‘कविता में प्रणय निवेदन के नाम पर न तो कोई भावोच्छवास है और न प्रलाप।’’
    डॉ. नामवर सिंह अपने ईमानदारी और प्रामाणिक अनुभूतिनामक निबंध के अन्त में अपने इसी प्रतिमान के बारे में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-‘‘तात्पर्य यह है कि ईमानदारी ज़रूरी है, लेकिन कवि के लिये कविता भी ज़रूरी है और इस ज़रूरत के लिये ईमानदारी काफी नहीं है, न रचना के क्षेत्र में और न आलोचना के।’’
    और अपने इस निष्कर्ष के आधार पर उन्हें जिन्हें जिस समय बहुत लोग जनप्रेम की दुहाई देने की होड़ मचा रहे हों, रघुवीरसहाय का यह कथन अधिक ईमानदारी भरा लगता है-
            ‘‘एक मेरी मुश्किल है जनता
            जिससे मुझे नफरत है सच्ची और निस्संग
            जिस पर कि मेरा क्रोध बार-बार न्यौछावर होता है।’’
    कुछ ऐसी ही निरस्त्र कर देने वाली ईमानदारी वे श्रीकान्त वर्मा की इन पंक्तियों में देखते हैं-
            ‘मैं ग़ौर से सुन सकता हूँ
            औरों के रोने को
            मगर दूसरों के दुःख को
            अपना मानने की बहुत
            कोशिश की, नहीं हुआ।
    डॉ. नामवर सिंह इन कविताओं को इस प्रकार व्याख्यायित करते हैं कि-‘इसे चाहे मानव-द्रोह कहें, अहं का विस्फोट कहें, लेकिन इस आत्म-स्वीकृति की ईमानदारी में संदेह नहीं किया जा सकता। वैसे, यह अनिवार्यतः कवि की आत्म-स्वीकृति है भी नहीं। है तो काव्य-नायक की, जो अपने कथन के द्वारा आज की दुनिया में फैलते हुए व्यक्ति से व्यक्ति के अलगाव से पैदा होने वाली संवेदनहीनता के सत्य की सख़्त ज़रूरत है।’’
    श्रीकांत वर्मा की इन पक्तियों का कड़वा सच इतना तो तय है कि संवेदनहीनता का न तो कोई प्रमाण है और समझदार अर्थवेत्ता [ डॉ. नामवर सिंह को छोड़कर ] ऐसा मानने का दुस्साहस कर सकता है, क्योंकि कवि ने या काव्य-नायक ने दूसरे के दुःख को अपना दुःख मानने की बहुत कोशिश की है। बस विचारणीय यहाँ यह है कि इस हताशा और निराशा से सराबोर आत्म की स्थापना काव्य-क्षेत्र में इसलिये संदिग्ध है, क्योंकि डॉ. सिंह मानते हैं कि ईमानदारी ज़रूरी है, लेकिन कवि के लिये कविता भी ज़रूरी है। इस ज़रूरत के लिये ईमानदारी काफी नहीं है। न रचना के क्षेत्र में न आलोचना के क्षेत्र में।’’
    फिर भी कविता में यदि ईमानदारी का यह रूप है तो इसका अर्थबोध डॉ. सिंह के लिये एक बहुत बड़ी उपलब्धि भले हो, किन्तु यह सामाजिकों को संवेदनशील नहीं, संवेदनहीन ही बनायेगा।
    तात्पर्य यह कि जो ईमानदारी सामाजिकों को ईमानदारी के प्रति सचेत करने के बजाय संवेदनहीनता की ओर ले जाये और डॉ. सिंह को यह हर पल यह चिंता सताये कि-‘चाहे मानवद्रोह कहें, चाहे अहम् का विस्फोटतो ऐसी आत्म-स्वीकृति की ईमानदारी पर संदेह ही किया जायेगा।
    ‘कविता के नये प्रतिमाननामक पुस्तक में मुक्तिबोध की एक भूतपूर्व विद्रोही का कथनशीर्षक कविता भी ऐसी ही एक आत्म स्वीकृति के उदाहरण के रूप में भले ही डॉ. सिंह के द्वारा रखी जाये, किन्तु ऐसी आत्म-ग्लानि किस काम की जो जीवन के ग़लत मूल्यों के खिलाफ़ किये गये संघर्ष और विद्रोह को एक अपराध-बोध से संत्रस्त कर दे। वह भी मात्र इस कारण से कि-‘‘हम एक ढहे हुए मकान के नीचे दबे हैं। दुःख तुम्हें भी है, दुःख मुझे भी है।’’ का अर्थबोध् अनुताप नहीं, पश्चाताप में अनुनादित है, किन्तु इस उद्भाष तक न तो डॉ. सिंह पहुँचते हैं न दूसरों को पहुँचने देना चाहते हैं।
    इसी पुस्तक में श्रीकांत वर्मा की बुखार में कविताशीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ भी कि ‘‘मुझे दुःख नहीं मैं किसी का न हुआ, दुःख है कि मैंने सारा समय हरेक का होने की कोशिश की।’’ कवि के मनोगत अभिप्रायों को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने के बजाय कुंठित अधिक करता है। यह ईमानदारी रागात्मक समृद्धि  नहीं, रागात्मक विपन्नता है। कमाल यह है कि ईमानदारी और प्रामाणिक अनुभूतिके नाम पर उक्त निबंध में ऐसी ही कविताओं की भरभार है। सत्कार है।
    ईमानदार कवि-कर्म की प्रामाणिक अनुभूति के दर्शन करने हों तो क्रांतिकारी पं रामप्रसाद बिस्मिलकी इन पंक्तियों में किये जा सकते हैं, जिसमें न तो कोई अनुताप है और न परिणाम के प्रति कोई पश्चाताप या अपराध-बोध-
        ‘‘बला से हमको लटकाये अगर सरकार फाँसी से
        लटकते आये अक्सर पैकरे-ईसार फाँसी से।
        इतने सरफरोशाने-वतन बढ़ जायेंगे क़ातिल
        कि लटकाने पड़ेंगे तुझे नित दो चार फाँसी से।।’’
    अस्तु! मानना पड़ेगा कि मानवीय जीवन की विसंगतियाँ, बिडम्बनाएँ, अनुभूति की जटिलताएँ, तनाव, ईमानदारी, प्रामाणिक अनुभूतियाँ तथा डॉ. सिंह द्वारा उल्लेखित परिवेश और मूल्यआदि यदि काव्य-सृजन का विषय बनते हैं और ये प्रतिमान अगर काव्य-भाषा, बिम्ब, सृजनशीलता, संरचना, प्रतीकात्मकता, नाटकीयता आदि का सहारा लेकर काव्य को अर्थवान बनाते हैं तो यह भी निश्चित है कि मानवीय जीवन के लिये इन प्रतिमानों के अर्थ-संकेत बिना कोई संदेह किये, मानवीय जीवन के लिये ही हैं।
    अतः महत्वपूर्ण यह नहीं है कि बिम्ब कितना टटका या ताज़ा है, सृजनशीलता कितनी नयेपन से अभिभूत है, काव्य-रचना कितनी प्रयोगात्मक या नाटकीय है, विसंगति, बिडंबना या अनुभूति की जटिलता कितनी प्रामाणिक है, तनाव कितना गहरा या उथला है, परिवेश कितना वास्तविक और मूल्य कितने सही है? इन सब तथ्यों के प्रतिमानों का महत्व इस संदर्भ में है कि ये सब प्रतिमान या तथ्य, कविता के माध्यम से मानवीय जीवन या मानव-कल्याण के लिये क्या अर्थ-संकेत देते हैं।
    इस दृष्टि से डा. नामवर सिंह की मूल्यांकन-दृष्टि मात्र अन्तर्विरोधें को ही जन्म नहीं देती, -यथार्थवादी भी है, जो जाने-अनजाने मानवीय चेतना को तेजस कम, कुंठित ज्यादा करती है। प्रगतिशीलता के नाम पर अँधेरे के रंग भरती है। संम्भवतः यह श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह और मुक्तिबोध को कविता के क्षेत्र में स्थापित करने की ग़रज से किया गया सुकर्म है और यह सुकर्म ही उन्हें कविता क्या है? जैसे मूलभूत प्रश्न के उत्तर के प्रति संदिग्ध बनाता है।
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-15/109,ईसानगर, निकट-थाना सासनीगेट, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630